अपना नववर्ष मनाएँगे Shubham Amar Pandey
अपना नववर्ष मनाएँगे
Shubham Amar Pandeyपश्चिम की अतार्किक बातों को
जब ढोते थे, तब ढोते थे,
दुनिया में अंधी दौड़ के पीछे
बिना विचारे हो लेते थे, पर
असभ्य सभ्यता के अनुगामी हो
निज गौरव कहाँ हम पाएँगे,
अपना नववर्ष मनाएँगे।
पश्चिम का यह उत्सव है आता
जब धरा ठिठुरती सर्दी से,
घनघोर निशा का पहरा है और
रवि भी आता देरी से,
इस बर्फ सरीखे मौसम में हम
कैसे प्रकृति की आभा पाएँगे,
अपना नववर्ष मनाएँगे।
पश्चिम के इस उत्सव में
भोग, विलास ही साधन हैं,
छद्म रूप में उजियारा है
तमस में डूबा अंतर्मन है,
इन अधियारों के स्वामी से
क्या आताप की आस लगाएँगे,
अपना नववर्ष मनाएँगे।
चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि
अपने नववर्ष के आने पर,
दिनकर की किरणें तम हरती
धरा प्रेम सुधा बरसाती है,
कोयल के मधुरिम स्वर सुनकर
पेड़ों पर कोपल आती है।
फाल्गुन का रंग बिखरता है
वसुधा ही दुल्हन बन जाती है,
आदिशक्ति कन्या बनकर तब
घर-घर खुशहाली लाती हैं,
अखिल विश्व फिर कल्याणी संग
भारत का नववर्ष मनाता है,
अपना नववर्ष तब आता है।