सन्तोष  Anupama Ravindra Singh Thakur

सन्तोष

Anupama Ravindra Singh Thakur

पत्तों की बनी छोटी सी कुटिया में
बमुश्किल दो लोग पैर पसार कर बैठ सकते हैं,
वहीं रहता है
पाँच से छह लोगों का एक कुनबा,
बेफिक्र
हालातों से लड़ता।
 

मिट्टी के चूल्हे से निकलता धुँआ
रुला देता है,
फिर भी
न हारती
न थकती वह,
न परिस्थितियों से घबराती।
वही चार बर्तनों में
खाना भी पकाती,
पानी भी तपाती,
कपड़े भी धोती,
जैसे मिल गया हो
कोई जादुई पात्र।
नहीं कोई गिला-शिकवा
नहीं कोई चाहत,
बिना तेल,
बिना मसाले के
सूखी रोटी में भी जीवन जीने की है चाहत।
 

आसमान को अपनी चादर बना
रातों में मच्छरों के संग
सोते हैं,
टूटे आईने में चेहरा देख,
जाने किस दौलत पर खुश होते हैं,
सुख, चैन और सुकून की यह विरासत
दौलत वालों के नसीब कहाँ?
मखमली बिस्तर पर भी
वह चैन की नींद कहाँ?
 

कहीं तंगी और किल्लत में भी संतोष है
तो
कहीं अनंत ऐश्वर्य
पाकर भी असन्तोष है।

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