रहबर  SMITA SINGH

रहबर

SMITA SINGH

पूछ रही हूँ नीले गगन से
पूछ रही हूँ एक गगनभेदी प्रश्न,
आसमान को छूने की है चाहत
कुछ ऐसा ही है मेरा प्रश्न।
पूछ रही खुले आसमान से
पलट कर आसमान भी जैसे पूछ रहा हो,
जवाब जैसे माँग रहा हो,
क्यों आसमान की चाहत है मुझको,
पलट कर पूछना लाज़मी है
प्रश्न करना उसका अधिकार
क्यों आसमान ही मैं चाहती हूँ?
क्यों ना चाहूँ आसमान
मैं लायक़ खुद को समझती हूँ।
 

धूप कड़ी थी, पर मैं ना डरी थी,
हर मौसम में निडर खड़ी थी,
हर राह पर रोड़े, कंकड़,
लोगों की प्रश्नवाचक पैनी सी नज़र।
 

जीवन के जब सारे प्रहर देख लिए और समझ भी लिए
तब क्यों ना रखी आसमान पर नज़र,
चेष्टाएँ पुरज़ोर निश्चित लक्ष्य की सहर,
नई सुबह का इंतज़ार
खुद की रहबर जब खुद ही हूँ अब,
रहबरी कोई करने वाला नहीं मेरा।
 

एकाकीपन से सीखती रही मैं
मार्गदर्शन करती रहीम,
अभिवादन मेरे सभी नाम के रिश्तों को,
और प्रणाम उन सभी अपनी को,
छोड़ दिया था उस समय मेरा साथ
जब खोज रही थी मार्गदर्शन।
 

सीख ली एक बात
गाँठ बाँध ली,
अंतर्मन और अनुभव संग
अनमोल लम्हों को खोने के बाद,
ठीक ही है
सीख ली करनी अपनी रहबरी।

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