चारपाई SMITA SINGH
चारपाई
SMITA SINGHचार पैरों वाली चारपाई जो चार पैसों से थी बनाई,
हसरतें निर्धन की सीमित सिमटी सी,
दीवारों पर लिखती रहती थी ख्वाहिश,
चाँद की शीतल चाँदनी से भी करती रहती थी सिफ़ारिश।
टूटे तारों के इंतज़ार में आसमान निहारती आँखें मेरी
करती रहती थी मनुहार,
कब दीदार हो टूट कर गिरते तारों का
कब ख्वाहिश पूरी हो जाए,
इंतज़ार ख़त्म हो बन जाए मेरा सुखी संसार।
निर्धन की छोटी सी ख्वाहिश बस,
करता रहता है छोटा सा प्रयास।
चार प्रहर सुबह, शाम, दोपहर, रात,
चार ही दिशाएँ, चार दिन की ज़िंदगानी,
चार पैसे कमाने हेतु लगे लोग होड़ में,
बेक़रार बेचैन से लोग
बेशुमार दौलत अर्जन कर,
बन गए हैं मशीनी,
रखते नहीं किसी से सरोकार।
भूल से गए लोग हो गए मतलबी,
पूछने पर हाल-चाल
लोगों का जवाब करता है बेहाल,
पता नहीं जग जा रहा किधर को, होता है ऐसा प्रतीत,
अंतहीन इच्छाओं का जाल बन गया है जंजाल।
पूर्णता की इच्छा में अपूर्ण जीवन जीते लोग,
दिन रात फ़िकर में विचलित इंसान,
अनगिनत आकांक्षाएँ,
झूठे दिखावों को ही समझ रहा सम्मान।
आजकल की विधा अलग है
भावना में शुद्धि कम ही है,
शतरंज की चालें चलता इंसान,
रिश्तों को तोल रहा रूपयों की झलक से,
आकर्षित हो रहा पैसों की खनक से,
रिश्तों का हो रहा अपमान।