हिन्दी मेरा अभिमान  Vibhav Saxena

हिन्दी मेरा अभिमान

Vibhav Saxena

हिन्दी तो मात्र एक भाषा ही लगती है,
भला कहाँ यह अब मातृभाषा रह गई है?
अपनों ने ही जिसको दोयम दर्जा दिया,
उस बेटी की तरह ही यह सब सह गई है।
 

वैसे तो 1949 में ही राजभाषा बन गई
पर आज तक राष्ट्रभाषा ना बन सकी है,
इतने सालों से भटक रही है सम्मान को
अच्छा यही है कि अब तक ना थकी है।
 

मैकाले के मानस पुत्रों ने तो सदा से ही
हिन्दी भाषा को जमकर खूब सताया है,
जो बोलते और लिखते हैं हिन्दी गर्व से
उनका देश में ही गया उपहास बनाया है।
 

यहाँ हिन्दी की कद्र करने वालों की कमी
और बस अँग्रेजी का ही ज्यादा सम्मान है,
सोचिए कि यदि मातृभाषा ही उपेक्षित हो
तो कैसे कोई भी देश बन सकता महान है?
 

मॉम-डैड कहते-कहते जो कभी ना थकते
माँ-पिता का असली अर्थ ना जान सके हैं,
पाश्चात्य सभ्यता में रंगे हुए हैं ये पूरी तरह
संस्कारों के महत्व को ना पहचान सके हैं।
 

विश्व में हर देश जब अपनी मातृभाषा को
साथ लेकर प्रगति-पथ पर बढ़ सकता है,
तो हिन्दी को सर्वव्यापक बनाने के बाद
कैसे ना भारतीयों का पेट भर सकता है?
 

यही हाल रहा और समय पर हम ना जागे
तो हिन्दी भी एक दिन लुप्तप्राय हो जाएगी,
देववाणी संस्कृत की भाँति हिन्दी भी कभी
किसी कोने में बदहाली के आँसू बहाएगी।
 

भले ही कोई समझे चाहे ना समझे मग़र
मेरे दिल का तो सच्चा अभिमान है हिन्दी,
आओ राष्ट्रभाषा को उसका सम्मान दिलाएँ,
कि हम सबकी आन-बान और शान है हिन्दी।

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