आँसू Sameer Rishi
आँसू
Sameer Rishiसोचा कि कुछ लिख दूँ
उन कोरे पन्नों पे, जो शायद
कब से राह देख रहे थे,
कि कब कोई अपनी दास्ताँ से उनको भर दे।
शायद उन्हें भी मोहब्बत की तलाश थी,
यही सोचकर कलम उठाई थी मैंने
पर अब अल्फाज़ कहाँ से लाऊँ?
निगाहें जा टिकी खिड़की के बाहर...
'अनन्त' की ओर-
'वापस लौटो' किसी ने निगाहों से कहा
देखा तो कुछ 'धुंए के छल्ले' तैरते हुए
कह रहे थे.... 'यादें'....
हां 'यादें' शायद इन्ही को तो लिख सकूँगा...मैं अब।
लिखने को हुआ ही मैं कि
कोरे पन्ने फड़फड़ाए, शायद-
हवा ने झिटका उनको...
फिर वो शांत हुए तो देखा कि
कुछ 'बूंदे' थी आँसुओं की उनसे लिपटी,
मुस्कुराती हुई...मैंने पूछा उनसे-
'क्यूँ?'...मुस्कुराए क्यूँ!
हमने आँखों से मोहब्बत की...पर
आँखों ने हमे खुद से अलग किया!
तो! मुस्कुराना कैसा?
'देखो तो ज़रा...वो अब भी हममें दिख रही हैं!'
हाँ...सच है ये तो,
"अब तुम इन्हें खुद से कभी अलग मत करना"-
मैंने 'कोरे पन्नों' से कहा....
"ठीक है" कहकर,
-कोरे पन्नों ने आंसुओं को समा लिया।