सिंहनाद  Sameer Rishi

सिंहनाद

Sameer Rishi

तू पृथक मार्ग का अनुगामी
स्वयमेव ही आगे बढ़ता चल,
है औरों से क्या अभिलाषा
ख़ुद के पदचिन्ह तू गढ़ता चल।

 

माना कि मार्ग है क्लिष्ट सही
पर तू वसुधा की भीड़ नहीं,
किंचित-व्यग्र-कटु 'तिरस्कार'
मधु-बूंद की भांति तू पीता चल!
 

जब रात्रि अंधेरी होती है
तब कुछ 'जंबुक' हु-हुआते हैं,
फिर हुआ सवेरा जैसे ही
वापस 'पाताल' को जाते हैं-
इन 'हुआ-हुआ' की चीखों पर..
'सिंहनाद' तू मढ़ता चल!
 

जब विजय अवश्यंभावी हो
तब यश-अपयश का भय कैसा?
चल उठ तरकश के तीरों सा-
शक्तिमान का क्षय कैसा!
 

है वीर वही कोलाहल में जो
सिंहनाद गर्जन करता,
विचलित करता जो कोलाहल है-
वह स्वयं उसे विचलित करता!
 

ढलते सूरज को अर्घ्य नहीं
उठते को दंडवत् प्रणाम,
खुद ही अंदर से कलुषित हैं
तुझको भी चाहें खुद समान।
 

इन कलुषित 'मन' की चालों पर तू
मृत्युपाश को कसता चल!
तू पृथक मार्ग का अनुगामी
इस 'विजय-मार्ग' पर बढ़ता चल,
मत देख कभी पीछे मुड़कर
तू मस्त चाल से चलता चल।

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