साँझ ढले चले आना  Lakshmi Agarwal

साँझ ढले चले आना

Lakshmi Agarwal

सुबह की उगती किरण संग
देखूँ नित मुखड़ा तेरा,
जाते देख तुझे कहीं भी
दिल घबराता मेरा।
रहो तुम कहीं भी ख्याल मेरा
अपने साथ ही रखना,
प्रेम को मेरे कसौटियों में न
कभी भी परखना।
दिन भर रहो तुम चाहे जहाँ
पर साँझ ढले चले आना,
मन को मेरे तुम नित बहाने
वादों से मत बहलाना,
बस यही एक आशा मन में
तुम साँझ ढले चले आना।
 

नित नए श्रृंगार-आभूषण-परिधान
धारण किए हैं,
अनजाने में या कभी छिपकर
तुम एक बार मुझे
हाँ, बस मुझे निहार जाना।
निहारते जब छिपकर तुम मुझे
नाचे मन मयूर सदृश,
दिल चाहे एक बार फिर से
टूटकर तुझे चाहना।
 

रूप-सौंदर्य खिल जाता
भाता मुझे बहुत तेरा वो
नजर का टीका लगाना,
मदहोश ही कर जाता मुझे
तारीफ का वो अंदाज शायराना।
याद करो चाहे मत दिन भर
पर डूबते सूरज संग प्रीत मेरी
तुम न कभी बिसराना,
इसलिए बार-बार कहती हूँ
साँझ ढले चले आना।
 

साँझ होते ही वक़्त काटे न कटता है,
क्या बताऊँ निगोड़ा
इक-इक पल कैसे अखरता है।
देखने को बस तेरी एक झलक
मन कितना मचलता है,
देखकर तुझको ही रूप मेरा
निखरता-सँवरता है।
आते ही सावन के मेघ से
मेरे तन-मन को भिगोना,
भीगना चाहूँ इस नेह-वृष्टि
में न जाने कितनी बार,
इसीलिए तो करती प्रणय-निवेदन
साजन मेरे रहो तुम कहीं भी
पर साँझ ढले चले आना।
 

प्रीत की हर कसम को
संग मेरे निभाते जाना,
निश्छल प्रेम को हमारे
रजनीगंधा सा महकाना।
हाथ पकड़े मेरा यूँ ही हमेशा
हर राह पर चलते जाना,
बिन कहे ही पढ़ लेना
आँखों की वो शिकयतें,
वो नादानियाँ,
प्यार की वो अनकही कहनियाँ,
हर शाम के साथ प्रेम की
नई इबारत लिखते जाना।
 

मन चाहे संग तेरे
प्रेम की परिभाषा पढ़ना,
प्यार को अपने एक नए
अनोखे रूप में गढ़ना।
सुकून बहुत देता मुझे तेरा
साँझ ढले चले आना,
तो बस इसी सुकून की खातिर
तुम साँझ ढले चले आना।

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