पतझड़ Sameer Rishi
पतझड़
Sameer Rishiआज क्लास से लौटते वक़्त सोचा
कि उस बेंच तक हो लूँ जिस पर कभी
बैठकर रातें हो जाया करती थीं,
यही सोचकर गया मैं उसके पास,
मुझे देखते ही वो बोली-"आ गया तू!"
'हाँ'...सकुचाते हुए मैं बोला....
'चल बैठ जा!' ...उसने कहा,
ठीक है बैठता हूँ'; कहते हुए मैं बैठा।
कहाँ चला गया था तू!' इतने दिन से..
बाट जोह रही थी मैं तेरी,
पतझड़ में-
एक तू ही तो था जो इन सूखे पत्तों के अलावा;
मेरा साथ दिया करता था...'अब तू भी!'
और... 'उसको कहाँ छोड़ आया?'-
'कहीं नहीं...यहीं तो है,मेरे बगल में!'
सकपकाकर मैंने कहा...
'अच्छा! अब तू भी झूठ बोलने लगा?-
बेंच ने कहा....
'नहीं तो..यहीं तो है, तू देख न!' मैं बोला;
'पर ये तो सूखे पत्ते हैं! जिन से तुम दोनों
खेला करते थे कभी'
'अच्छा! देखूँ तो...सूखे पत्तों पे हाथ फेरते हुए-
मैं बोला'.......'वही तो है!' बिलकुल वही!!
'परे हट!'...झुंझुलाते हुए बेंच ने कहा-
'पतझड़ है, बारिश नहीं; देख अपनी आँखें...
'चलता हूँ मैं'... उठते हुए मैं बोला,
ठीक है...जा! जल्दी आना फ़िर!!
हम्म....देखता हूँ, चलते हुए मैं बोला...
'सुन!'
'क्या है?' मैंने पूछा।
"बावला है तू!"......बेंच ने हल्के से कहा......