ज़िन्दगी की नई पारी Rakesh Rajgiriyar
ज़िन्दगी की नई पारी
Rakesh Rajgiriyarमेरे सामने वो कुछ ऐसे सुर्ख बैठे,
हम भी उनकी अदा पर
फ़िदा हो बैठे।
नज़र झुकनी थी उनकी, झुका हम बैठे,
शिकवा करें भी तो क्या उनसे,
हम तो उनके आगोश में
कुछ ऐसे खो बैठे।
ख़ता उन्होंने की,
माफ़ी हम मांग बैठे,
उम्र की खामोशियाँ थी
या रिश्तों की नादानियाँ
अपने-अपने हमसफ़र से तन्हा,
हम एक नए सफर पर चल पड़े थे।
ये चालीस की उम्र भी अजीब होती है साहेब,
ढलती उम्र के साथ-साथ
कब नए रिश्तो में ढल गए,
पता ही नहीं चला,
इन सफ़ेद हड्डियों पर
कब रंगीन चादर
हम फिर ओढ़ चले।