रात  Anurag Jaiswal

रात

Anurag Jaiswal

रात आती है तो खोल देती है ये कई सफें,
दिन भर जो ख़याल दरकिनार करता हूँ
वो सब धड़ाधड़ बरस पड़ते हैं
और भर जाता है मन का पतीला,
कभी कुछ रिस भी जाता है।
 

बरसों के दबे कुछ भाव भी उतर आते हैं,
कुछ ठिठोलियाँ आती हैं तो होंठ खिंच जाते हैं
तो कुछ वाकयों में मुट्ठियाँ भिंची जाती हैं
यादों के कई रैंडम से पन्ने निकल आते हैं
और अज़ीबों गरीब सूरतें पीछे दौड़ पड़ती हैं।
 

समझना मुश्किल है बाज़ी इस रात की
चाल चलती है कि हम लाज़वाब हुए जाते हैं,
रौशनी की एक लट दिखा, हमें बियाबान में ले जाती है,
उस भूलभुलैया के अंतहीन चक्कर लगवाती है।
 

ऐसा नहीं है कि मैं इसकी मक्कारियों से वाकिफ नहीं हूँ,
इसकी हरकतों से तो रोज़ाना दो चार हुआ जाता हूँ,
पर जाने क्या आकर्षण है, जाने क्या मोहिनी है
जो रोज़ इस रात की पल्लू की कोर थामे
कूद पड़ता हूँ इस ज़लज़ले में,
और ये हँसती जाती है मेरी मासूमियत पे।

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