दुविधा में मन  Arun Kumar Singh

दुविधा में मन

Arun Kumar Singh

असमंजस में है मन भ्रमित है,
यूँ कि अपने लक्ष्य से भटक कर
अनर्गल कामो में व्यस्त है,
थोड़ी सी कठिन परिस्थिति के आगे नतमस्तक है।
 

असमंजस में है मन कि माँ से लड़-झगड़ कर
घर से दूर आकर घर की याद आ रही है,
क्यों जीवन में दूर-दूर तक केवल
संघर्षशीलता ही नज़र आ रही है।
 

असमंजस में है मन कि अकेला हूँ
या अकेला ही काफ़ी हूँ,
सच्चाई और ईमानदारी की राह पर
चलने पर भी क्यों माँगता मैं माफ़ी हूँ।
 

असमंजस मेंं है मन कि क्या मृत्यु ही अंत है
या है एक नवीन अंतहीन सफ़र की शुरुआत,
प्रशंसा और आलोचना क्यों हमारे स्थिर प्रज्ञ व्यक्तित्व
को बनाए रखने की कोशिश को दे देते हैं मात।
 

असमंजस में है मन कि कहीं हम नाकामयाब तो नहीं
क्या हमारी सफलता, सफलता है भी या नहीं,
कहीं सव॓श्रेष्ठ दिखने के लिए अपने आप को
सत्यता के कसौटी पे कसना भूल तो गए नहीं।
 

असमंजस में है मन कि कुछ सृजित किया
या विनाश अभी तक,
कहीं बाहरी दुनिया की चकाचौंध में फंसकर
भूल न जाएँ कि पहुँचना है किस गंतव्य तक।
 

असमंजस में है मन कि कहीं संगति से
दुर्गति की तरफ ना चले जाएँ,
अपने जीवन को वस्तुनिष्ठ बनाने के चक्कर में
कृत्रिम न बनाते चले जाएँ।

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