श्री गणेश इंजी. हिमांशु बडोनी "दयानिधि"
श्री गणेश
इंजी. हिमांशु बडोनी "दयानिधि"पिता व पुत्र का प्रगाढ़ प्रेम, अनेक रूपों में व्यक्त होता है,
कभी होता बड़ों की सहमति, कभी बच्चों का हठ होता है।
सदा संतान की इच्छापूर्ति में, एक पिता सर्वस्व लुटाता है,
छूट चुकी इच्छाओं का दंश, वह किसी से कह न पाता है।
पुत्र श्रीराम को वन भेजने पर, पिता दशरथ दुःख पाते हैं,
अपने घट की घोर व्यथा को, वे कैकई को नहीं बताते हैं।
श्रीकृष्ण से बड़ी संतानों को, पिता वासुदेव ने खोया था,
कंस की निर्ममता देखकर, पिता का हृदय ख़ूब रोया था।
जब एक अभागे पिता ने, पुत्र श्रवण को जल हेतु भेजा,
तब वन में मृत पुत्र देखकर, फट गया पिता का कलेजा।
बुआ के अपमान के कारण, इंद्रजीत ने लखन को मारा,
बदले में दसरथ-नंदन ने, दशानन पुत्र को रण में संहारा।
सदैव त्रयंबकेश्वर नाथ को, कैलाश के निवासी पूजते हैं,
स्वयं उन्हें भी दुविधा में, प्रिय पुत्र श्रीगणेश ही सूझते हैं।
माता पार्वती की आज्ञा से, स्वयं द्वारपाल बने थे गणेश,
उनके संकल्प से प्रभावित हुए, ब्रह्मा, विष्णु और महेश।
पिता के सम्मुख पुत्र खड़ा, मुख पे तेज, वाणी में प्रताप,
क्रोधित शिव ने शीश काटा, माँ पार्वती को दिया संताप।
माँ के मुख से दुःख को सुनकर, शिव भी द्रवित हो गए,
नव-शीश कहाँ से पाऍंगे?, यह सोचकर शंकित हो गए।
तब नंदीगण को खोजने भेजा, माता से विमुख शावक,
कैलाश से लेकर स्वर्ग-धरा तक, नंदी दौड़ें जैसे धावक।
फिर ढूँढ़ा एक गज-शावक, शिव ने कराया शीश प्रवेश,
पुत्र को अनूठा रूप मिला, वो जग में कहाये श्री गणेश।
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पिता व पुत्र का सम्बन्ध इस समाज के सम्मुख गौण होने पर भी गहरा एवं संवेदनशील होता है। संतान के सत्मार्ग से विमुख हो जाने पर पिता का यह कर्त्तव्य है कि वह संतान के रवैये को सही करे। पिता की डांट-फटकार ठीक वैसी ही है जैसे घड़े पर कुम्हार की थाप, जिसका मूल उद्देश्य घड़े को सही आकार में ढालना होता है, उसे अघात देना नहीं। ठीक उसी प्रकार, एक पिता का क्रोध एवं क्षणिक रुष्ठता केवल संतान की भलाई के लिए ही होती है। इसका अन्य अर्थ निकालना एवं हिंसा के साथ सामंजस्य बैठाना व्यर्थ एवं निरर्थक है।