स्वयं को सुलझाने में! इंजी. हिमांशु बडोनी "दयानिधि"
स्वयं को सुलझाने में!
इंजी. हिमांशु बडोनी "दयानिधि"मीलों दूर का रस्ता तय कर, जब सागर नदी से मिलने आता है,
प्रतीक्षा की झुंझलाहट में वह, केवल डाँट फटकार ही खाता है।
नदी पूछती सागर से, तुम अब तक कहाँ थे?
तो सागर कहता,
“काफी नदियाँ मिलीं मार्ग में, लगा था उन सबको गले लगाने में,
पहले पूरा उलझा था मैं, अब तक लगा हूँ स्वयं को सुलझाने में।”
सूखा पड़े तो आशान्वित आँखें, वर्षा की हर बूँद को तरसती हैं,
हैं उमड़-घुमड़ आते सब मेघ, धरा पर बूँदें रिमझिम बरसती हैं।
धरा इशारे में पूछे मेघ से, इतनी देर तक कहाँ थे?
तो मेघ बोले,
“सब स्थानों से सूखा हटाया, अब लगा हूँ तुझपे जल बरसाने में,
पहले पूरा उलझा था मैं, अब तक लगा हूँ स्वयं को सुलझाने में।”
क्षण मृत्यु का अधिक निकट आते ही, लगता मनुष्य को डर है,
जैसे भीषण हवाओं के चलने पर, काँप उठता वृहद सागर है।
तो मृत्यु पूछती समय से, भला तुम कहाँ थे?
समय समझाता,
“जीवन का चक्र तो पूर्ण हुआ, जुटा हूँ मृत्यु का फेरा लगाने में,
पहले पूरा उलझा था मैं, अब तक लगा हूँ स्वयं को सुलझाने में।”
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वर्तमान में मनुष्य सामाजिक बन्धनों की अनिवार्यताएँ, सामाजिक ढाँचे की जटिलताओं के साथ-साथ इनकी विभिन्न समस्याओं के सम्मुख घुटा-घुटा सा महसूस कर रहा है। ऐसे मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा एवं दिशा इन सामाजिक ताने-बाने की बनावट के साथ ही समाज की परिधि में आने वाले विभिन्न जीव भी निर्धारित करते हैं। यदि मनुष्य ऐसी परिस्थितियों का सामना करने का साहस जुटा लेता है तो उसे यह समाज एवं इसके अन्य घटक सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु अन्तर्द्वन्द्व में फँसा मनुष्य न तो अपनी पीड़ा किसी से खुलकर कह पाता है और न ही विषमताओं का खुलकर विरोध प्रदर्शित कर पाता है। ऐसे मनुष्य की वास्तविक स्थिति एक दास से अधिक और कुछ नहीं होती है, जिसे अपने अहित पर अवरोध और हित पर प्रमोद करने के बीच का अंतर ही नहीं पता। मेरी यह कविता ऐसी ही मानसिक प्रताड़ना को लम्बे समय से चुपचाप झेलते आ रहे उन समस्त लोगों को समर्पित है, जिनका अधिकांश जीवन इसी आपाधापी में व्यतीत हो गया कि जो हो रहा है वो सही है? अथवा जो होगा क्या वह सही होगा?