परछाई Kuldeep Kriwal
परछाई
Kuldeep Kriwalपरछाई बन तुम सदैव
मेरे साथ चलती हो,
वक्त-बेवक़्त का नहीं कोई अंदेसा
रत तुम मुझमें रहती हो।
हो आलिंगन का प्रगाढ़ मिलन
मुझमें एक-सी हो जाती हो,
उभरें किसलय पर ज्यों नन्हीं बूँदें,
तन पर रोमछिद्र उद्वेलित हो उठते हैं।
चाक पर गीली मिट्टी
हाथ का सहारा पाकर,
आकार बदलने लगती है,
साथ तुम्हारा पाकर यों
जीवन को नई दिशा मिल जाती है।
परछाई मुझसे जकड़ी जंजीर-सी,
देख ना सकूँ, ना ही छू सकूँ,
यह कैसा तन से जुड़ा गहना है।
रो उठता है कभी-कभी हृदय
उतार-चढ़ाव के इन रागों से,
बैचेन हो उठती है मेरी आकांक्षाएँ,
ढूँढने मेरी स्वयं की परछाई को।
भ्रम के इस जीवन में
गतिशील हताशा की धारा,
परछाई-सा दृढ साहस
ज्वार-भाटे में भी हिलता न डुलता।
परछाई है मेरी पथ-प्रदर्शिका,
जो चल पड़ी मेरी ओट पाकर।