बेटी की बिदाई SANTOSH GUPTA
बेटी की बिदाई
SANTOSH GUPTAआई अति निर्मम बेला, लिए अश्रु की जलधारा
बिन पुहुप निष्प्राण देखो, हो रहा गुलशन सारा।
आया कुँवर फुलवारी, ले जाने उसे साथ कहाँ
पूछ रहा सारा ऊपवन, चला मेरा बहार कहाँ।
बागबान भी उन्माद में, दे रहा सब कुछ अपना,
निकाल कर हृदय से, जैसे अब उसे नहीं रखना।
नेह लताए सिमट कर ऐसे, मर्म से मुरझा रही,
टूट-फूट और बिखर कर, कैसे वो अकुला रही।
कुछ मेहंदी, कुछ हल्दी, कुछ मंत्र और अग्नि,
कुछ अनुवर्तन प्रथा का और सबको छोड़ चली।
परंपरा की प्रचंडता से निकुंज से वह टूट गई,
लाँघ कर चौखट को क्षण में ही आगंतुक हुई।
आहत से व्यथा-कुंड में सारा सदन है डूब रहा,
गिर चुके अश्रु के बूँदों को, नैनों में है ढूँढ़ रहा।
धूमिल लग रही धरा, है लुप्त हो रही प्रभा,
भ्रांति सा है हो रहा जैसे मरिचिका थी आत्मजा।
जो दरवाजे को अंदर से,अक्सर खोला करती थी,
अब वह बाहर से आकर, कैसे खटखटाएगी,
जो पूछा करती थी, अम्मा क्या बनाऊँ आज,
आज क्या बना वहाँ है, कैसे पूछ पाएगी।
मन की उडा़न जो जीवन भर, प्रमाद करती रही,
चलते हुए हर कदम पर, क्या संकोच टाल पायेगी।
बाबू जी की नंदिनी, अब गृहणी बन जाएगी,
प्यारी गुड़िया अम्मा की, अब बड़ी हो जाएगी।
उपनिधि को बेटी कहकर, प्यार से पाला जाता है,
सांसारिकता के अनुबंध से, सौंप दिया जाता है,
सांसारिकता के अनुबंध से, सौंप दिया जाता है।
अपने विचार साझा करें
कन्यादान के उपरांत प्रातः काल की वह निष्ठुर बेला जब एक बेटी को उपनिधि (पराया धन) समझ कर सौंप दिया जाता है। वातावरण बिल्कुल शोकमय हो जाता है, अश्रु की धाराएँ सागर भरती हैं, उस मार्मिक दृष्य, पीड़ा से भरी स्थिति को अपनी इस रचना के माध्यम से अपनी संवेदनशीलता को आपके हृदय तक पहुँचाने का प्रयास करता हूँ।