मुसाफिर Jagdish Chandra
मुसाफिर
Jagdish Chandraकभी हमसफर मिलेंगे तो कभी अकेला
चलना तो पड़ेगा,
पथरीली राहों में
चुभते काँटों की आह में,
प्रकृति की बाहों में,
मंज़िल के लिए चलना तो पड़ेगा।
मार्गदर्शक की खोज कर या निकल पर खुद की मौज पर,
कभी नदी की लहर पर,
कभी आग की लपट पर,
कभी चट्टानों को तोड़कर,
तो कभी राहों का मुख मोड़ कर,
चलना तो पड़ेगा।
राहों में फूल होंगे,
तुम ऐसी भूल न कर,
कंकड़ पत्थर काँटे मिले तो भी तुम शौक ना कर,
चलना है मुसाफिर के कर्म न कर कोई इसमें तुम शर्म,
मंजिल मुसाफिर के लिए ही है चलना तो पड़ेगा।
निकल पड़ा उस पथ पर,
फिर काँटे क्या फूल क्या,
मंजिल को ही मंजिल बना दिया,
तो फिर भूल क्या और चूक क्या,
चलते-चलते मुड़ना पड़े चाहे पथ बदलना पड़े,
मंजिल अंतिम मंजिल है मान लिया तुम मान ले।
चलना तो पड़ेगा,
तू मुसाफिर है चलना तो पड़ेगा।