मरुभूमि के उत्तंक मेघ Kuldeep Kriwal
मरुभूमि के उत्तंक मेघ
Kuldeep Kriwalअट्ठारह दिवस तक नृत्य किया प्रलय ने अविराम,
महाभारत के महाभीषण संग्राम ने लिया आज विश्राम।
युधिष्ठिर अब चक्रवर्ती भेष में सुरक्षित थे,
भगवान अब द्वारका लौटना चाहते थे।
यात्रा करते पहुँचे मारवाड़ क्षेत्र में भगवान,
रहते वहाँ उत्तंक मुनि तेजस्वी और महान।
भगवान ने मुनि के चरण स्पर्श कर उन्हें पूजा था,
मुनि था आदर्श वह भी सेवा-सत्कार में पीछे न था।
तत्पश्चात हरि ने कौरवों के संहार की बात बताई,
सुनकर मुनि के चेहरे पर क्रोध की रेखा खिंच आई।
बोले मुनि- मधुसूदन होता न रण, अगर तुम चाहते,
कौरवों के भी शक्तिशाली वीर आज धराशायी ना होते।
सम्बन्धी बनकर तुमने विश्वास उनका जीता था,
सामर्थ्य और शक्ति के रहते छल उनके साथ खेला था।
कुरुवंश का एक भी दीप अब शेष ना रहा,
लो दूँगा मैं अभिशाप जो अग्नि उगल रहा।
हरि बोले- पहले मुनि मेरी एक बात सुन लो,
शाप नहीं लग सकता मुझको यह बात जान लो।
धर्म की स्थापना हेतु अनेक योनियों में अवतार लेता हूँ,
यक्ष, गन्धर्व, नाग, वसु व दैत्य, सभी को शरण मैं देता हूँ।
ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, इंद्र सभी जन्म मुझ से ही पाते हैं,
धर्म का ह्रास हो जब, प्रलय भुजंग मुझ से ही निकलते हैं।
हर योनि में मेरा व्यवहार अलग-अलग होता है,
मेरा मनुष्य योनि का जीवन सार्थक अब होता है।
कौरव थे अभिमानी बात उन्होंने नहीं जानी,
मोहग्रस्त होकर मेरी प्रार्थना भी नहीं मानी।
अंत में रण में हुआ उनका काम तमाम,
प्राण देकर अब कर रहे स्वर्ग में विश्राम।
सुनकर यह अपने शाप पर मुनि को पश्चाताप हुआ,
विश्व विष्णु रूप का दर्शन कर उत्तंक धन्य हुआ।
मुनि ने वर माँगा मरुभूमि में जल मिलने का,
हरि बोले, स्मरण मेरा करना, मिलेगा जल पीने का।
यह कहकर चल पड़े हरि अपने निज धाम,
उत्तंक प्रसन्न होकर करने लगे निज काम।
प्यास लगी जब मुनि को, हरि का स्मरण हो आया,
तभी नंग-धड़ंग कुत्तों से घिरा चाण्डाल नज़र आया।
ह रही जिसके छिद्र से अजस्त्र जल की धारा,
बोला मुनि से, व्याकुल ना हो पी लो यह जल सारा।
कुपित हो मुनि उत्तंक चाण्डाल को डाँटने लगे,
वर देने वाले हरि को भी भला-बुरा बोलने लगे।
देखा सहसा चाण्डाल को, वह पृथ्वी में समा गया,
शंख चक्र गदाधारित भगवान को प्रकट वहाँ पाया।
बोले हरि-गुप्त रूप से अमृत ग्रहण कराने को सोचा था,
चाण्डाल वेष धारण कर इंद्र को अमृत पिलाने भेजा था।
अफ़सोस रहा मुनि आपने अमृत ना लिया,
मौक़ा था अमरत्व का, उसे तुमने गवाँ दिया।
खैर छोड़ो पुनः देता हूँ फिर से एक और वर,
प्यास बुझाएगा मेघ मरुभूमि में पानी बरसा कर।
नाम उन मेघों का उत्तंक मेघ होगा,
प्यासी मरुभूमि में उत्तंक मेघ से जल होगा।
अब भी हरि के कथन मारवाड़ में गूँजते हैं,
आज भी उत्तंक मेघ मरुभूमि में पानी बरसाते हैं।
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यह कविता पौराणिक घटना पर आधारित है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ उसके पश्चात जब श्री कृष्ण अपने निज धाम जा रहे थे तो बीच यात्रा में मारवाड़ क्षेत्र में उत्तंक मुनि से मुलाकात हुई। कौरवों के नाश से मुनि क्रोधित हुए। जब श्री कृष्ण ने उन्हें अपने जन्म का प्रयोजन बताया तब मुनि शांत हुए फिर श्री कृष्ण ने उन्हें मरुभूमि में पानी की कमी दूर करने का वर दिया।