अधेड़ उम्र Arun Kumar Singh
अधेड़ उम्र
Arun Kumar Singhस्तब्ध है जीवन उनके उम्र के इस पड़ाव पर,
अनायास ही यह मानव शरीर बनाया
ये सोचता है मन।
उनके लिए सुबह-शाम, रात-दिन,
असहनीय कष्ट की चारपाई पे ही गुज़र जाता है,
माया के मोह पाश में मन बार-बार बँध जाता है।
त्रस्त हैं, पस्त हैं,
अपनों के बिछड़ जाने की पीड़ा से ग्रस्त हैं।
कभी अपने चेहरे को
आईने में देख इठलाते थे,
अपनी सुंदरता पर बल खाते थे,
समय के कठोर चक्र की क्रूरता ऐसी
कि वही चेहरा झुर्रियों से भर जाता है।
कहीं मन के किसी कोने में
बुरे कर्मों की टीस है,
इसीलिए बुढ़ापे का जीवन
नौजवानी के जीवन को एकटक देखता रह जाता है,
बस देखता ही रहता है।
जीवन के इस पड़ाव पर ठहराव दिखता है,
दुख में न ज़्यादा दुखी होते हैं,
न सुख में ज़्यादा सुखी।
अपनों की चिंता की चिंता बहुत सताती है,
अपने हिस्से का जीवन जी भर जी लेने के बाद
बस सुकून से मरने की अभिलाषा ही रह जाती है।
बचपन से बुढ़ापा तक का चक्र
ज़िंदगी को सम्पूर्ण बनाता है
और बुढ़ापा
बचपने की परछाई बन जाता है।