अकिंचन मन  Diwakar Srivastava

अकिंचन मन

Diwakar Srivastava

कुछ अकिंचन सा है मन, काश हो कोई ऐसा दर्पण
कतिपय देख लूँ मैं उसमे अपने अंतर का अंतर्मन।
 

खुले आसमान के नीचे छत की कोई बाधा न हो,
सो जाऊँ मैं बस इन अबूझ तारों को यूँ गिन-गिन।
 

भ्रमित इस मन के बहुत से अनसुलझे भरम हैं,
बस, हो जाऊँ मैं विह्वल जो हो मेरे ईश के दर्शन।

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