अकिंचन मन Diwakar Srivastava
अकिंचन मन
Diwakar Srivastavaकुछ अकिंचन सा है मन, काश हो कोई ऐसा दर्पण
कतिपय देख लूँ मैं उसमे अपने अंतर का अंतर्मन।
खुले आसमान के नीचे छत की कोई बाधा न हो,
सो जाऊँ मैं बस इन अबूझ तारों को यूँ गिन-गिन।
भ्रमित इस मन के बहुत से अनसुलझे भरम हैं,
बस, हो जाऊँ मैं विह्वल जो हो मेरे ईश के दर्शन।
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मन के बहुत से आयाम हैं, काश ऐसा कोई दर्पण हो कि हम मन के सारे आयाम जान लें और समझ लें और अपने अंतर्मन को देख कर निर्णय लें, जैसे खुले आसमान के नीचे कोई बाधा नहीं होती, उसी प्रकार मन को बाधाओं से मुक्त कर दूँ और जितने भी अबूझ रहस्य या बातें हो उनपे गौर करूँ, अंत में मैं पाता हूँ कि मन के बहुत से सुलझे और अनसुलझे रहस्य हैं, इसलिए अपने ईश्वर के दर्शन कर इस मन की अबूझ पहेली को विश्राम देना चाहता हूँ।