हथकड़ी Kuldeep Kriwal
हथकड़ी
Kuldeep Kriwalवह बैठा है मौन
एक नए युग की प्रतीक्षा में,
वह चाहता है मुक्त होना
इस यातनाओं के शहर से।
वह झुँझलाता है
और तोड़ना चाहता है
असभ्यता की हथकड़ियाँ,
वह जानता है
मजबूर है ढ़ोने को
इन परम्पराओं के बोझ को।
निराशा के तम में
वह गरजता है मूक वाणी में,
ज्यों लहरें उत्साह भर आगे बढ़ती
पर दोगुने बल से उसे
पीछे ढ़केल दी जाती।
सुलगता है उसके जिस्म का रोम-रोम,
धुआँ है उसका जीवन,
रूढ़ी परम्पराओं की अमरबेल ने
ज्यों जमा लिया है तरु पर पूरा अधिकार,
वह व्याप्त है पूरी तरह उसका शोषण कर
अब मात्र ढाँचा ही शेष है।