स्मृतियों के द्वार Anurag Jaiswal
स्मृतियों के द्वार
Anurag Jaiswalस्मृतियों के द्वार पे दस्तक फिर वही पुरानी है
शाम ढले हर रोज़ वही तस्वीरें हैं, आवाज़ें हैं,
मन के सागर के तट पर हर बार वही कश्ती रुकती
हर बार वही साया उतरे, हर बार करे मनमाना पन।
मिट्टी के तन पर इतनी माया, क्यों इतने रंग बरसते हैं
ठग लेते हैं हर बार मुझे, हे देव! करो थोड़ा तो रहम,
संग विचरण करती हैं उसके मन की सारी अभिलाषाएँ
उस छवि के संग नेहा लगते, विसरा जाते सारे बंधन।
है सौम्य हँसी मुखमंडल पर, एक ज्योतिपुंज सा फिरता है
मैं मंत्रमुग्ध सा तकता हूँ, महका जाता हूँ साथ-साथ,
कुछ पल जो बीते साथ कभी, रह-रह के वो चुभ जाते हैं
फिर से सजीव हो उठते हैं, वो हम दोनों के मन आँगन।
सुख के दो क्षण की ओस गिरे, फिर तरसा करे सदियों के पल
ऐसी निष्ठुर ये प्रीति भला, क्यूँ करके हमको छलती है,
क्षण भर के साथ की आशाएँ, फिर दुर्दिन घिरते जाते हैं
ढह जाते कोमल मन के द्वार, भरते जग में आँसू क्रंदन।