तुम भी बोलो, क्या दूँ रानी नरेन्द्र शर्मा

तुम भी बोलो, क्या दूँ रानी

नरेन्द्र शर्मा | शृंगार रस | आधुनिक काल

पगली इन क्षीण बाहुओं में 
कैसे यों कस कर रख लोगी 
एक, एक एक क्षण को केवल थे मिले प्रणय के चपल श्वास 
भोली हो, समझ लिया तुमने सब दिन को अब गुंथ गये पाश 

स्वच्छंद सदा मै मारुत-सा 
वश में तुम कैसे कर लोगी 
लतिकाओं के नित तोड पाश उठते ईस उपवन के रसाल 
ठुकरा चरणाश्रित लहरों को उड जाते मानस के मराल 

फिर कहो, तुम्हारी मिलन रात 
ही कैसे सब दिन की होगी 
मै तो चिर-पथिक प्रवासी हू, था ईतना ही निवास मेरा 
रोकर मत रोको राह, विवश यह पारद-पद जीवन मेरा 

राका तो एक चरण रानी 
पूनों थी, मावश भी होगी 
जीवन भर कभी न भूलूँगा उपहार तुम्हारे वे मधुमय 
वह प्रथम मिलन का प्रिय चुम्बन यह अश्रु-हार अब विदा समय 

तुम भी बोलो, क्या दूँ रानी
सुधि लोगी, या सपने लोगी

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