खाे रहा प्रकृति का साैन्दर्य संजय साहू
खाे रहा प्रकृति का साैन्दर्य
संजय साहूपरिवर्तन का युग आया है,
संग अपने कितना कुछ लाया है।
नई -नई आशाएँ हैं, नई-नई उम्मीदें हैं,
कैसे इस परिवर्तन से हो रही विचित्र तस्वीरें है।
अंधाधुंध इस दौड़ मैं कैसा विकास ये आया है,
उजड़े वन उपवन सब, ये कैसी गुमनामी को लाया है।
निर्मल थी जो सरिता अब तक उनकी कैसी ये काया है,
कल-कल की ध्वनियों को खोकर, ये कैसी सुनामी लाया है।
बादल भी है सहमें-सहमें जैसे गर्जना पर कोई संकट छाया है,
बारिश की बूंदों को खाेकर, ये कैसा विकराल रूप लाया है।
प्रकृति है रूठी-रूठी विकास की सब ये माया है,
परिवर्तन का ये भयावह दृश्य, ये कैसी विकृति लाया है।