मेरी दादी सलिल सरोज
मेरी दादी
सलिल सरोजमेरी दादी
की आँखों में
डिबरी का सूरमा था
जो डिबिया की लौ
के साथ रात भर
दुआर पर जागता था।
उन आँखों में मुझे
लहलहाते खेत
कलकल करती नदी
अलसाया हुआ भोर
और रंभाती गाएँ
सब दिख जाती थी।
मैं और भी
बहुत कुछ देखता था
मेरे वंश का उदय
मेरे वर्तमान का विकास
मेरे कल का परिचय
मेरे जीवन का संचय।
उन आँखों में
प्यार,कर्तव्य
बलिदान,सम्मान
सब सैत के रखे थे
जिन्हें दादी समय से निकालती
और नून-तेल के जैसे
हिसाब से इस्तेमाल करती।
मैं दादी से
अंतिम बार जब मिला
तो उस पर मोटा चश्मा था
जो आँसू के सोते को छिपाता था
और सूरमा उसी में डूब गया था।