सच की लाश मिली सलिल सरोज
सच की लाश मिली
सलिल सरोजजो सिक्के थे पुराने बाज़ार से उठ गए,
एक-एक करके दोस्तों के साथ छूट गए।
जब से गिरी है बूढ़ी टहनी शज़र से,
सब फूल और सब पत्ते भी टूट गए।
जब तक माँ थी आँगन में सब ठीक था,
उसके जाते ही अपने ही घरों को लूट गए।
विधवा नज़र आती हैं गाँव की सभी गलियाँ,
अपने ही कदम जब से डयोरि से रूठ गए।
गाँव की चौपालों पे हुए जब जात के चर्चे,
खेत-खलिहानों तक के किस्मत फूट गए।
हुआ जब भी दफ़्न गाँव मेरा फाइलों में,
सच की लाश मिली, ज़िन्दा सिर्फ झूठ गए।
यह मेरी स्वरचित कविता है एवं इसका प्रकाशन अभी तक किसी पत्रिका या अखबार में नहीं हुआ है।