इश्क़ किया और आग से खेलता रहा सलिल सरोज
इश्क़ किया और आग से खेलता रहा
सलिल सरोजमैंने इश्क़ किया और बस आग से खेलता रहा,
एक घड़ी जलता रहा, एक घड़ी बुझता रहा।
हुस्न को कहाँ इतनी अदीकतें अता हुई हैं,
मैं खुद ही गिरता रहा और खुद ही संभलता रहा।
खुशफ़हमी थी जब तक दिल-ए-बेकरार को,
आप ही मचलता रहा और आप ही बहलता रहा।
ये तमाशा यूँ ही खत्म हो जाता तो क्या बात थी,
आँख भी मिलाता रहा और नज़रें भी चुराता रहा।
हथेलियों से आँखें बंद करके उसने क्या जादू किया,
मुझे जगाता भी रहा और ख्वाब भी दिखाता रहा।
ये सरापा कयामत नहीं तो और क्या है,
मुझमें ही खोता रहा और मुझे भी चुराता रहा।