शान्त उसका हुस्न-ए-बरहम ही कब था  सलिल सरोज

शान्त उसका हुस्न-ए-बरहम ही कब था

सलिल सरोज

ज़ख्मों से गिला बाक़ायदा बेमानी ही था,
आखिर मैं काबिल-ए-मरहम ही कब था।
 

मेरे जलने में सिर्फ मेरा ही कुसूर न था,
शान्त उसका हुस्न-ए-बरहम ही कब था।
 

मेरे नाम लेने से वो बदनाम कभी न था,
बाज़ारों से उठा दागो-दिरहम ही कब था।
 

वो चाँद बनके निकला तो भी दाग ही था,
मुरुब्बत का चेहरा नूर-ए-पैहम ही कब था।
 

इस सफर को होना बस तमाम ही सा था,
उसके दिल में रोज़ा-ए-रहम ही कब था।

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