तू रसूक बनकर सबको फुसलाता क्या है  सलिल सरोज

तू रसूक बनकर सबको फुसलाता क्या है

सलिल सरोज

जब धुआँ है घना सा चारों ही तरफ,
फिर आँखों को नज़र आता क्या है।
 

खुद की ही बिसात लुटी हुई है इस बाज़ी में,
फिर औरों के प्यादों को समझाता क्या है।
 

खून से सींचा हुआ मंज़र यूँ ही नहीं बदल जाएगा,
फिर खुशफ़हमी से दिल को बहलाता क्या है।
 

अभी तो इब्तिदा है, इन्तहा बाकी ही है,
ज़ुल्म से इतनी जल्द उकताता क्या है।
 

देखना, मौत अभी सरेआम तमाशा भी करेगी,
तू तो इसी तरह जिया है, फिर घबराता क्या है।
 

खुदा कब दीदार को आज़िज़ है तेरे लिए,
तू रसूक बनकर सबको फुसलाता क्या है।

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