मैं शक्ति हूँ अदिति शर्मा
मैं शक्ति हूँ
अदिति शर्मामैं शक्ति हूँ कमज़ोर नहीं,
मेरे ऊपर तेरा ज़ोर नहीं,
बहुत लूट लिया तूने मुझको,
ये जान ले कि अब और नहीं।
मैं आग हूँ ये मत भूलना,
मेरी चुप्पी से ना मुझे तोलना,
तू कोशिश तो कर नज़र उठाने की,
फिर मैंने बोला नहीं ये मत बोलना।
तेरा आरंभ मैं,
तेरा अंत भी मैं,
तू हाथ लगाकर तो मुझे देख ज़रा,
जिस मिट्टी से तेरा वजूद है
न उसी मिट्टी में तुझे मिला दिया,
तो मैं भी नहीं फिर चंडिका,
हाँ मैं भी नहीं फिर चंडिका।
अगर ममता का समंदर है ये दिल मेरा,
तो ज्वाला हिम्मत की मेरे कलेजे में है,
मुझे तेज़ाब से मिटा सकता है तू,
ऐसा सोचता है तो धोके में है।
कोख में आने से दुनिया में आने तक,
मैं हर आग में जलती आई हूँ,
जन्म से लेकर आज तक,
मैं हर दिन झुलसती आई हूँ।
कोई गुड़िया नहीं हूँ मोम की,
ना कोई गुलाब का फूल हूँ,
तीसरी आँख हूँ महादेव की,
देवी मैया का त्रिशूल हूँ।
ये जो आवाज़ें मुझे दुत्कारे हैं,
सुनना है मुझे ये शोर नहीं,
बहुत जकड़ लिया इस समाज ने,
अब बहुत हुआ नहीं और नहीं।
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औरत की ममता और नर्म स्वभाव को उसकी कमज़ोरी समझ लेता है हमारा समाज। औरत जब तक खामोश है वो उसे अपनी जागीर समझता है। कभी बेटी, कभी माँ कभी बीवी के दर्जे का वास्ता देकर औरत उससे अपनी इज़्ज़त की गुहार लगाती है फिर भी हर घर, हर रिश्ता उसे शर्मसार कर देता है। मेरी ये कविता खुद एक औरत होने के नाते समाज को ये बताने के लिए है कि जब जब औरतों को न बेटी, न बीवी, न माँ, बल्कि इंसान होने के नाते इज़्ज़त से महरूम रखने की कोशिश की जाएगी तब-तब वो शक्ति बन समाज के रूबरू आएगी।