प्रेम-विरह  सलिल सरोज

प्रेम-विरह

सलिल सरोज

गाँव की आखिरी गली में,
तुम्हारे न लौट आने के क्रम में
तुम्हारे कदमों के जो निशान बने थे,
वो आज भी साफ, सुंदर और
सुरक्षित हैं।
 

जिन्हें मैंने
हवा, बारिश और अनजानों की ठेस से बचाया है,
उस निशान से ही अपने माँग का सिंदूर सजाया है,
हिना के संग उसी को अपनी हथेली पे रचाया है,
मीरा की तरह अपने मन-मंदिर में बसाया है।
 

और जब से
तुम छूटे तो मुझसे ये जग सारा छूट गया,
घर-द्वार, सखी-सहेली, पास-पड़ोस सब रूठ गया,
एक-एक रिश्ते का हर धागा ही टूट गया,
मेरी नींदों में बना सपना भी जैसे लुट गया।
 

पर फिर भी
राधा की तरह उसी निशान में मैं खोई रहती हूँ,
आँखें खुली रहती हैं पर मैं सोई रहती हूँ,
इस संसार के सब लाज शरम भूल कर,
तुम्हारे वापस आने की आस बोई रहती हूँ।
 

नहीं पता कि
इस प्रेम, इस आसक्ति की प्राप्ति क्या है,
विरह में तड़पते दिल की तृप्ति क्या है,
मैं प्रेम सुधा का पान करके बस जिए जा रही हूँ,
कोई समझा सके तो समझाए प्रेम में विरह की प्रवृत्ति क्या है।

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