वो मेरा कातिल अदिति शर्मा
वो मेरा कातिल
अदिति शर्माखंजर से लगते दिल पर
वो थे उसके अल्फ़ाज़,
हर राज़ मेरा लेकर बैठ गया
वो था मेरा हमराज़।
फ़क़त पल भर की थी वफ़ा उसकी
ताउम्र मुझे रुलाना था,
जाने क्यों जीना सिखाया उसने
जब कत्ल कर ही जाना था।
बहादुर कहूँ या बेगैरत उसे
जो सीना छलनी कर गया,
दिलदार में देख चेहरा कातिल का
मेरा कतरा-कतरा बिखर गया।
सिमटकर रह गई मेरी मोहब्बत
मेरे ज़ख्मो से निकलते खून में,
जब मेरी चीखों को सुनकर
चेहरा उसका निखर गया।
बोला "चाहता तो हूँ तुम्हें बहुत
बस अपनी आदत से मजबूर हूँ,
तोड़ा तुम्हें ना चाहकर भी
क्योंकि खुद अंदर से चूर हूँ।
नफरत ना करना मुझसे ए सनम
तुम्हें तुम्हारी मोहब्बत की कसम,
याद रखना मुझे और मेरी चाहत को
हाँ माना थोड़ा बुरा ज़रूर हूँ।"
वो कुछ कहता रहा मैं सुन ना सकी
थी मेरी साँसे रुक रही,
अब वक्त हो चला था जाने का
अपने खुदा से मिलकर आने का।
मेरे ज़ख़्मी पड़े शरीर को
उसने धीरे से बाहों में लिया,
बोला "जान बड़ा खुदगर्ज़ हूँ मैं
जो इतना ज़ुल्म तुझपर किया,
ना तेरे साथ रहना है मुझको
ना बिन तेरे रह पाउँगा,
अगर यूँ ही मुझको चाहेगी
तो ऐसे ही तड़पाऊँगा।"
जाने कहाँ से आई इतनी ताकत मुझमें
कि उसे खुदसे मैंने दूर कर दिया,
उस आखिरी बचे दिल के टुकड़े को
अपने हाथों ही चूर कर दिया।
मैं पागल थी कुछ नासमझ सही
अब बाकी मुझमें ना वफ़ा रही,
आग लगा दी सारे ख्वाबों को
दुआएँ गाड दी मिट्टी में कहीं।
मेरी ज़िंदगी निचोड़ कर
उसे जाने क्या हुआ हासिल,
भूलकर हर किस्से को
आगे बढ़ना है मुश्किल,
पर देखो ना उधर
कैसे हँसता है मुझपर,
आज भी, वो मेरा कातिल
हाँ वो मेरा कातिल।