वैश्या  सलिल सरोज

वैश्या

सलिल सरोज

तुम जाना
कभी उन गलियों में
जहाँ तुम्हें मनाही है,
पर तुम जाना
और सच देखना,
जो मनाही की आड़ में
छिप जाता है।
 

उसे
रंडीखाना,वैश्यालय,
कोठा और पता नहीं
क्या-क्या कहते हैं,
तुम नाम में मत फँसना
वरना सच को हरा के
झूठ वहीं जीत जाएगा।
 

यहाँ जिस्म बिकता है,
पूरा या हिस्सा
दोनों,
ग्राहक और पैसा
बहुत कुछ
तय करता है,
जैसे कि
सिर्फ छाती चाहिए,
या होंठ,
या जांघ,
या नितंब,
या पूरे
जिस्म का लोथरा,
एक घंटा चाहिए
या आधा,
या पूरा दिन,
अकेला चाहिए
या किसी
और के साथ,
अकेली चाहिए
या कई के साथ,
फर्श पे चाहिए
या पलँग पर,
कोठरी में चाहिए
या एयर-कंडीशन में,
बत्ती जला के चाहिए
या बुझा के,
अधनंगा बदन चाहिए
या नंगा चाहिए।
 

तमाम
समीकरणों में
जिस्म के पीछे
कोई माँ,
जिसकी बेटी
खिड़की से
रोज़ माँ को
बिकती देखती है,
कोई बहन
जिसकी राखी
किसी भाई को नहीं
पहचानती है,
कोई बीवी
जो शौहर से
काँपती है,
कोई बेटी
जो बाप के डर से
भागती है
और
एक औरत
जो समाज
के दायरे में,
रिवाज़ की जंजीर
में लिपटी
रोज कलपती है,
कलसती है,
रोती है,
चिंघारती है,
और वक़्त-बेवक़्त
बेआबरू होकर
मरती है।
तुम उससे मिलना
और जानना सच
इस सभ्य समाज का
जो औरतों को
पूजता है,
कहीं सावित्री तो
कहीं सीता को खोजता है,
और देवी की कल्पना में
मूर्तियाँ भी तराशता है,
और शाम ढलते ही
उसी बदनाम गली
में जाता है
जहाँ
तुम्हें जाने की
मनाही है।

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