ये प्रकरण कहाँ से शुरू होता है  सलिल सरोज

ये प्रकरण कहाँ से शुरू होता है

सलिल सरोज

ये यातनाओं का प्रकरण कहाँ से शुरू होता है,
कहाँ से ज्वाला उठती है विद्वेष की,
कहाँ से आती है बू मानव के भींचे हुए लाशों की
और
कहाँ से शुरू होती है अत्याचार की लेखनी।
 

हम क्यों क्रूर और वहशी हो जाते हैं,
हम क्यों बैठ जाते हैं बम के ढ़ेरों पर,
हमें क्यों शर्म नहीं आती हैवान बने रहने में,
हमें क्यों ग्लानि नहीं होती हमारे रोज़ गिरते जाने में।
 

किस समाज के सृजन में हम ख़ुद को धोखा दे रहे हैं,
सत्य की खोज बता कर खुद को असत्य से छुपा रहे हैं,
क्यों दो धारी तलवार सी हमारी ज़ुबाँ सब नष्ट कर देती है,
क्यों हम अपनी नपुंसकता से आक्रांत और भयभीत हो जाते हैं।
 

हम सब खोखले समाज के थोथी आदर्शों के बोझ से दबे हुए हैं,
सबके हाथ अपनी ही इच्छाओं के खून से सने हुए हैं,
राष्ट्रनिर्माण, मानव कल्याण, समाज-सुधार सब मिथ्या है,
हम बस किसी तरह जीवित रहें, इसी भ्रम से बुने हुए हैं।
 

कला, संस्कृति, इतिहास, विमर्श
सब हैं साज और सज्जा से भरे हुए पेटों के,
सरकार, तंत्र, व्यापर, नीति, व्यवस्था
सब तलवों में हैं धनाढ़्य-रईस सेठों के।
 

पार्टियाँ, जलसे, दौलत, शोहरत, नाम,
न्याय, प्रतिष्ठा सब की कीमत हमने तय कर दी है,
गरीब, लाचार, मज़लूम, आदिवादी, किन्नर,
पिछड़ों की साँसों में जंजीरें भर दी हैं।
हम किस लोकतन्त्र और संविधान के अनुयायी हैं,
जिसकी गोद में रोज़ हिंसा पले, क्या यही सही है?
 

हमें, तुम्हें सबको वो लेखनी बदलनी होगी,
नई दवात, नई सोच की स्याही उड़ेलनी होगी,
जर्जर ढाँचे में छिपी बेबसी तोड़नी होगी,
नव नूतन कल्पनाओं से नई रचना करनी होगी।

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