मेरी कविताओं का दर्द सलिल सरोज
मेरी कविताओं का दर्द
सलिल सरोजमेरी कविताओं में
हर किसी का दर्द
साफ उभर कर आता है,
जिसे हर पढ़ने वाला
महसूस भी करता है
और अभिभूत होकर
यदा-कदा रो भी पड़ता है,
और किसी क्षण प्रत्युत्तर में
संवेदना के दो बोल भी
बोल देता है।
पर
मेरी कविताओं का दर्द
किसी को क्यों नहीं दिखता,
मैं वैसी ही कविता क्यों लिखूँ
जो औरों को पसंद हो,
जिसकी चर्चा बड़ी-बड़ी महफिलों में हो,
जिन्हें अपने प्रचार-प्रसार हेतु
तकनीक की ज़रुरत हो,
जो कभी मोबाइल तो कभी फ़ोन
के सहारे ही
औरों तक पहुँचता हो,
जिसकी ख्याति
और जिसकी गुणवत्त्ता
इसी बात पर टिकी हो कि
सोशल मीडिया पर उसको कितना लाईक
और शेयर मिलता है।
मैं अपनी कविताओं को
क्यों बाँधूँ किसी भी परिपाटी में,
छंद, नुक्ता, अर्थ और
काव्य गोष्ठियों की जाति में।
मैं कविताएँ ग़ढ़ता हूँ
खुले मैदान के बीच,
स्वछंद बहती हुई हवा के समान,
जो हर अहसास से
होकर गुज़रती हैं,
नदी, पहाड़, झरने
और पेड़ से सँवरती हैं,
जिन्हें सही ज्ञान है
जीवन के आदर्शों का,
मानवीय मूल्यों
और मेरे संघर्ष के बर्षों का।
तो
सुनो कभी तुम भी
मेरी कविताओं का गर्जन,
करो महसूस कभी
उस जकड़न को
जिसमें तुम उसे बाँधना चाहते हो,
जिसे अपने स्वार्थ तले
कुचलना चाहते हो
और चाहते हो
वो तुम्हारी चाटुकारिता करें,
तो
ऐसा हर्गिज नहीं होगा,
तुम आज इसे अपने
क्रोध की अग्नि में जला दो,
पर कल फिर यह किसी
फिनिक्स की भाँति
खड़ा हो जाएगा
और पूरे नभ पर
बादल बनकर बिखर जाएगा।
अपने विचार साझा करें
कविताओं की गुणवत्ता और प्रासांगिकता यहाँ इस बात से तय होती है कि उसको सोशल मीडिया पर कितने लाइक और शेयर मिलते हैं। इन्हीं अजीब परिपाटियों से सचेत करती हुई मेरी यह कविता उन सभी लेखकों को एक प्रणाम है जो कविता रचते हैंं किसी प्रयोजन के लिए न कि इसे देह दर्शन के लिए।