अख़बार सत्येंद्र चौधरी "सत्या"
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सत्येंद्र चौधरी "सत्या"अखबारों की देख दशा "सत्या" भी बड़ा अचंभा है,
लोकतंत्र में भारत के इसे कहते चौथा खंभा हैं।
जीवन बस एक दिन का है, इतिहास समेटे लम्बा है,
पहले छपकर बिकता था, अब बिककर छपना धंधा है।
जनता की आवाज उठाए जो समाज के दर्पण थे,
अखबारों के सारे अक्षर असहायों को अर्पण थे।
पाँच सितारा होटल के अब व्यंजन की सूची लगते हैं,
बस महंगे विज्ञापन वाले नवरत्न अगूंठी लगते हैं।