मोहब्बत का शौक़ीन नया समाज नहीं सलिल सरोज
मोहब्बत का शौक़ीन नया समाज नहीं
सलिल सरोजवो मेरी निगाहों में तो है पर मेरा हमराज़ नहीं,
गीत हैं उसी के लबों पे, पर मेरी आवाज़ नहीं।
हर आती जाती साँस पे है वो काबिज़ यकीनन,
पर अब वो मेरा कल नहीं और कोई आज नहीं।
उसकी यादों से बिंधी पड़ी हैं मेरी शबनमी रातें,
पर चाँद बनके उस गली में जाने का रिवाज़ नहीं।
वो अब भी मेरी दिल्ली की पुरानी गलियों सी है,
लेकिन मेरे संजीदा ख़्वाबों का पुरनम ताज़ नहीं।
मैं अब भी उसी जूनून से तुम्हें अपना भी लूँ पर,
मोहब्बत का शौक़ीन अब यह नया समाज नहीं।