औरत सलिल सरोज
औरत
सलिल सरोजहर औरत के अंदर
एक जंगल होता है,
जिसमें
वो कई चीज़ें भुला देती है
या
हम उस जंगल में घुसते ही
कई चीज़ें भूल जाते हैं।
उस जंगल के रास्ते
उसके लिए बड़े सीधे हैं
जिस पर चलकर वो
अपनी परेशानियाँ
यूँ छिपा देती हैं
जैसे
कोई गिलहरी
मिट्टी में अखरोट रखकर
भूल जाती है।
अपने सपनों को
जिन्हें कभी पंख लगे थे
गृहस्थी में फँसकर
दरबे की मुर्गी जैसी
उड़ना भूल जाती है।
अपने अस्तित्व को
जो शादी, बच्चे होने से
पहले तक
बहुत जीवित था
चारदीवारी की खूँटी
में बँधकर
खुद से ही मिलना तक
भूल जाती है।
उसी सीधे रास्तों पे
जब हमारे मर्दों के पाँव
चलते हैं,
तो बड़ी उबाड़-खाबड़
और कष्टकारी प्रतीत होती है,
चलने के क्रम में
पीड़ाओं का सामना करते हुए
हम कई चीज़ें भूलने लगते हैं।
हमारी खुशी
जो कभी उनकी
भी खुशी थी,
उसपर एकाधिकार,
कब्ज़ा हो जाता है,
आदमी बस मर्द
बन जाता है
पति, सहगामी और दोस्त होना
सब भूल जाता है।
जो मेहंदी, बिंदी, टिकुली
चूड़ी, सिंदूर, काजल, लाली
जेवर, श्रृंगार शोभा देते थे,
पति के मन को हर लेते थे
दुनियादारी की नफासत में
पत्नी को भी भूल जाता है।
रस्म, रिवाज़, धर्म, संस्कार
संस्कृति की आड़ में
अपमान से तपा-तपा के
ग्लानि से गला-गला के
वस्तु बनाके बाज़ारू कर देता है
बस
औरत को औरत रहने दिया जाए
हर बार
यही भूल जाता है।