अपनी लाश उठाने की सोचता हूँ सलिल सरोज
अपनी लाश उठाने की सोचता हूँ
सलिल सरोजमैं जब भी तुझे भुलाने की सोचता हूँ,
अपना ही दिल जलाने की सोचता हूँ।
जला दूँ तुम्हें लिखी मेरी सब चिट्ठियाँ,
मैं आग, पानी में लगाने की सोचता हूँ।
मिटा दूँ तुम्हारा चुंबन अपने बदन से,
और अपनी उम्र घटाने की सोचता हूँ।
मैं भूल जाऊँ तुमसे की हर मुलाकात,
तो अपनी हस्ती मिटाने की सोचता हूँ।
ला कर धूप तुम्हारी परछाई तक पर,
अपनी शनासाई छुपाने की सोचता हूँ।
तुम्हें बद्दुआ देना भी तो गँवारा नहीं,
वर्ना अपनी लाश उठाने की सोचता हूँ।