मुलाक़ात  सलिल सरोज

मुलाक़ात

सलिल सरोज

तुम्हारी मुलाक़ात का यह असर हुआ है,
जो वीरान जंगल था, आज शहर हुआ है।
 

यह कैसी आग लगाई हमारे रकीबों ने,
हम इधर बैठे हैं और धुआँ उधर हुआ है।
 

कैसे परदेशी पंछी लौटे अपने घरों को,
यहाँ आधी रात बीती तो दोपहर हुआ है।
 

सच की नब्ज़ टटोलना छोड़ चुके हैं हम,
जबसे अखबार ख़बरों से बेखबर हुआ है।
 

माँ के रहते हुए भाइयों में बँटवारा देख,
जाते-जागते घर में मौत का मंज़र हुआ है।
 

काम किसी का हो, नाम अपना होना चाहिए,
ज़माने में अब यह भी एक नया हुनर हुआ है।

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