कैसे हैं खेत, कैसा है कुआँ का पानी कहो सलिल सरोज
कैसे हैं खेत, कैसा है कुआँ का पानी कहो
सलिल सरोजगाँव से आए हो कोई किस्सा कहानी कहो,
कैसे हैं खेत, कैसा है कुआँ का पानी कहो।
क्या अब भी मेरे घर की गालियाँ रौशन हैं,
उस गली से लड़की की आनी-जानी कहो।
हम भूल गए सब कुछ शहर की दौड़ में,
दोस्त तुम ही कोई शरारत पुरानी कहो।
हवाओं की ज़ुल्फ़ों में कंघी करती और
नदियों का चुम्बन लेती शाम सुहानी कहो।
चौपालों पर जमघट, मेलों में चाट-ठेले,
और लोरियाँ सुनाती हुई दादी-नानी कहो।
सब खो दिया हमने गॉंवों से पराए हो कर,
गम, ख़ुशी, अल्हड़पन और नादानी कहो।