लाचारी सलिल सरोज
लाचारी
सलिल सरोजये किश्तों में
जीने की लाचारी
मेरी खुद की
ख्वाहिश तो नहीं,
तुम फिर क्यों
सुबह से शाम तक
मुझे बेशक्ल करने को
झूठी दिलासा भेजते हो,
जो सालती ही रहती है
रोज़ नया तमाशा भेजते हो,
जबकि मुझको भी
और
तुमको भी मालूम है
ये अँधेरा घना नहीं,
ये रात सदी से लंबी नहीं।
मैं एक दिन
सूरज को
अपने पसीने से
छींटे मारके जगाऊँगा,
ये जो रात उबासियाँ लेती है,
साँसों की गर्माहट से तपाऊँगा,
यकीन मानो,
मैं
अपना सवेरा खुद बनाऊँगा
और
अपनी हस्ती की इबारत
आसमान के सीने पे लिख जाऊँगा।