गाँव और बरगद सलिल सरोज
गाँव और बरगद
सलिल सरोजगाँव की दहलीज पर बैठा
वह बूढ़ा बरगद
सब जानता है।
वह जानता है
आधुनिकीकरण क्या है,
व्यवसायीकरण से क्या होता है,
मशीनीकरण के क्या परिणाम हैं
और
अमानवीय होते जाने के क्या नुकसान हैं।
गाँव में घुसते ही
सबसे पहले जिस पर निगाह पड़ती है,
वह ठूँठ हुआ बूढा बरगद ही तो है
मानव विकास श्रृंखला की
हर डोर,
जो गाँव के विकास के नाम पर
ग्रामीणों के गले में
फंदे बना कर डाली जाती है।
उसका प्रथम और चिरकालीन
गवाह है,
और भुक्तभोगी है
हर प्रयोग का,
जिसमें इंसान प्रकृति को जीतने की कोशिश करता है
और क्रमशः
नदी, नाले, पेड़-पहाड़,
ताल-तलैया, झरने, पशु-पक्षी,
हवा, जल, जमीन,
मिटटी, अन्न, खेत-खलिहान,
सबको रौंदता जाता है
और स्वार्थ का पताका
बेलगाम फहराता जाता है।
बूढ़े बरगद को याद है
अपनी जवानी के वो दिन,
जबी हरे पत्तों के बालों में
संदली हवाएँ कंघी किया करती थीं,
चिड़िया घर बनाती थीं,
दाना-पानी करती थीं,
अपने बच्चों के साथ गाती थी।
उसे याद है
दूर-दराज से आने वाले वो पथिक
जो उसकी छाँव में
उबलते सूरज को चकमा दिया करते थे,
बच्चे उसकी बाँहों में झूल कर
उसे चूमते थे,
किलकारियाँ मारते थे
और
ख़ुशी से उसका दमन भर देते थे,
लड़कियाँ सावन में
झूलों पर बैठ कर प्रेम की दुहाई देती थी,
सखियों को छेड़ती थी।
गाँव की औरतें
हर साल
वट-वृक्ष सावित्री पूजा में
उसे किसी दुल्हन की तरह सजाते थे,
उसका श्रृंगार करते थे,
और उसे अपने परिवार का अभिन्न अंग मानते थे।
गाँव के पुरुष
शाम को गाते-बजाते
अपने दुःख-सुख बाँटते,
आने वाली पीढ़ी की
भविष्य रेखा तय करते,
गाँव के बड़े-बुजुर्ग
बच्चों को किस्से-कहानी सुनाते,
किसी गुजरे ज़माने के
भूत-प्रेत के बारे में बताते
और अपनी गोद में सुलाते।
फिर सरकार को लगा
यह गाँव बहुत पिछड़ा है,
देश के विकास में बाधा है,
सो वहाँ से बिजली की तार निकलने लगी
और मेरा तना कटने लगा,
गाँव में पक्की सड़क बनने लगी
और मेरा जड़ कटने लगा,
गाँवों में मोटरें दौड़ने लगीं
और मेरे हरे पत्ते स्याह होने लगे,
फिर
मेरी शक्ल और सूरत देखकर
सबको मुझसे घिन्न आने लगी,
सब मुझ से दूर होने लगे।
पर उन्हें नहीं पता था
यह उनके साथ
होने वाली अनहोनी की परछाई है,
"गाँव तो अनपढ़ था,
शहर की बात समझ नहीं पाया"
सड़क, बिजली, मोटर की रफ़्तार ने
सबको शहर धकेल दिया,
किसी को रोज़गार के लिए,
किसी को आराम के लिए,
किसी को नए मकाम के लिए।
गाँवों से रिश्ते टूटने लगे
मेले-ठेले छूटने लगे,
एक ही घर में कई दीवारें हो गईं,
जो छप्पड़ के घर थे
मीनारें हो गईं।
खेत काली उल्टियाँ करने लगे,
नदियों में मछलियाँ मरने लगीं,
बारिश ने अपना मुँह मोड़ लिया,
ठंडी हवाओं ने रिश्ता-नाता तोड़ लिया।
बच गया तो बस विकास,
जिसने गाँव स्वाहा किया
और गाँव के पहरेदार
बरगद को तबाह किया।
अब बच्चे अपने गाँव आते हैं
तो कहते हैं-
"कुछ नहीं रखा इस गाँव में
निकलो सब शहर के लिए,
और चिट्ठियाँ लिखते हैं
सरकारों को
अर्जियाँ देते हैं दफ्तरों में,
गाँव के और विकास के लिए
जो भी बचा है उसके सर्वनाश के लिए।"
गाँव को गाँव बनाकर भी विकास हो सकता था
बूढ़े बरगद का सत्कार हो सकता था,
पर विकास की कीमत
बहुत महँगी है
और सबसे सस्ती है
"ज़िंदगी।"