तुम ही तुम सलिल सरोज
तुम ही तुम
सलिल सरोजतुम्हारा अलग, मेरा अलग शहर होगा,
ना जाने कैसे अब गुजर-बसर होगा।
वक्त फना हो जाता था तुम्हें तकते हुए,
किस कदर तन्हा वो मेरा दोपहर होगा।
सुर्ख होंठ, नर्म रुखसार और घने गेसू,
दीदार इनका कहाँ अब मयस्सर होगा।
दुनिया बसती थी मेरी तुम्हारे ही होने में,
अब कोई अपने घर में ही बेघर होगा।
बगीचे खिलाए थे मैंने तुम्हारी हँसी के,
तुम्हारे बगैर बेरंग सब गुलमोहर होगा।
पहले तो इत्मीनान था तुमसे मिलने का,
अब बताओ कि कैसे मुझसे सबर होगा।