तत त्वम असि  DEVENDRA PRATAP VERMA

तत त्वम असि

जीवन अनुभव के लिए है। सत्य के अनुभव के लिए...दूसरे शब्दों में कहें तो स्वयं के अनुभव के लिए। जीवन में घटने वाली तमाम घटनाएँ किसी न किसी प्रकार से स्वयं का साक्षात्कार कराती हैं।

रोज़ की तरह सब काम काज समेट ऑफिस से घर पहुँचा कि चलो भाई इस व्यस्त भागदौड़ की ज़िन्दगी का एक और दिन गुज़र गया, अब श्रीमती जी के साथ एक कप चाय हो जाए तो ज़िन्दगी और श्रीमती जी दोनों पर एहसान हो जाए। खैर ख्यालों से बाहर भी नहीं आ पाया था कि श्रीमती जी का मधुर स्वर अचानक कर्कश हो गया, अजी आपका ध्यान किधर है, इतनी देर से फ़ोन बज रहा है आप उठाते क्यों नहीं हैं, और हाँ अगर ऑफिस से बड़े साहब का फ़ोन हो तो मुझे दो मैं बात करती हूँ कि शाम के 6 बज चुके हैं अब तो मेरे पतिदेव को बख्श दीजिए, ये कौन सा काम है जो ख़त्म ही नहीं होता है, और जब घर पर भी ऑफिस का काम करना है तो घर आने ही क्यों देते हैं। अब छोड़ो भी, एक रिपोर्ट भेजनी थी, दो मिनट का काम है, शायद उसी के लिए फ़ोन कर रहे हैं मैं भेज देता हूँ। ख़बरदार जो कंप्यूटर को हाथ लगाया, मैं कह देती हूँ, तुमसे कभी बात नहीं करुँगी, जो मेरे हिस्से का वक़्त तुमने ऑफिस के फालतू के काम में गंवाया तो हाँ। फालतू का काम!! फालतू का काम नहीं है, बहुत ज़रूरी रिपोर्ट भेजनी है, मुझे भेज लेने दो फिर जैसा तुम कहोगी मैं वैसा ही करूँगा। और कोई चारा न देख मैंने वो ही कह दिया जिसका वो इंतज़ार कर रही ही। अच्छा ठीक है, जल्दी से भेजो जो रिपार्ट-सिपोर्ट भेजनी है, मैं चाय लेकर आती हूँ और वह विस्मयकारी मुस्कान लिए किचन की ओर चली गई। मैं निरपराध अपराधी सा, कंप्यूटर के कीबोर्ड पर खेल कूद कर आखिर में आराम से बैठ श्रीमती जी का इंतजार करने लगा। श्रीमती जी मुस्कुराती हुई चाय लेकर आई, उनकी मुस्कुराहट देख अनायास ही मुझे पुराणों का स्मरण हो आया, कहीं ऐसा न हो आज देवराज इंद्र का इंद्रासन ही न छिन जाए, आखिर वचन में जो बंध गए हैं, वो भी एक स्त्री के, जिसके लिए महाराज दशरथ ने श्री राम को चौदह वर्ष का वनवास दे दिया था। डरो मत तुम्हारा एटीएम कार्ड नही माँगूँगी और न ही शॉपिंग पे ले चलूँगी, बस मेरे हिस्से का जो वक्त तुमने अपने ऑफिस को दिया है उसमें से बस एक दिन उधार दे दो और कल ऑफिस से छुट्टी ले लो कहीं बाहर चलते हैं किसी नदी के किनारे, जहाँ बस हम तुम हों और कोई न हो। ओह बस इतनी सी बात, मैंने राहत की साँस ली, चलो अच्छा ही है इसी बहाने सही कुछ समय हौदेश्वर नाथ धाम (प्रतापगढ़ जनपद के कुंडा तहसील में गंगा नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन शिव मंदिर) में बिताते हैं जहाँ मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गंगा माँ के दर्शन भी हो जाएँगे और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो जाएगी और कुछ पल समय की कैद से निकल स्मृतियों के महल में सुरक्षित हो जाएँगे।
 

गंगा नदी के तट पर शिव मंदिर से उठती घण्टा ध्वनि, धीमे सुनाई पड़ते मन्त्रों के स्वर, पक्षियों का कलरव और गंगा की लहरों पर वायु एवं जल के घर्षण से उत्प्न्न ध्वनि और इन सब के मध्य बेहद सादगी में श्रीमती जी का सानिध्य, ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो विभिन्न रंगों से सजे किसी अधूरे दृश्य को पूर्णता मिल गई हो, कुछ अधूरा सा जिसे आँखें देखना चाहती थी किन्तु उस भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में देख नहीं पा रही थी। श्रीमती जी अपने मधुर स्वर में कुछ अतीत के पलों का स्मरण कराती रहीं और मैं उनके मुखड़े को निहारता उस पूर्णता के अनुभव में डूबा रहा कि अचानक फिर से उनका कर्कश स्वर सुनाई दिया, ऐसा लगा मानो...मानो ..वीणा के तार बजते-बजते टूट से गए। कहाँ खोए हुए हो तुम? मैं इतनी देर से बक-बक किए जा रही हूँ और तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो, कहाँ खोए हो तुम, कहीं फिर से उस लड़की के ख्यालों में तो नहीं जिसका नींद में तुम नाम लेते हो। नींद में भी मैं तुम्हारा ही नाम लेता हूँ, अपनी सहपाठिनी कामिनी का स्मरण करते हुए मैं कुशलता पूर्वक सम्हला, मैं तुम्हारी ही सुंदरता को निहार रहा था। प्रिये मैं उसी में डूबा हुआ था, तुम भी कहाँ बेवजह कामिनी का नाम ले लेती हो। कामिनी .... ये कामिनी कौन है? ..मैंने उसका नाम कब लिया? सच-सच बताओ ये वही ख्वाब वाली लड़की है? नहीं भाई मेरी कामनाओं की स्वामिनी मेरी कामिनी तुम्हीं तो हो, तुम्हारे सिवा अन्य कोई कामिनी वामिनी नहीं है, मेरा यकीन करो, मैंने उसे बहलाने का सफल प्रयास किया। अच्छा ये सब छोड़ो चलो अब मुझे अपनी लिखी कोई कविता सुनाओ वो भी गाकर, तरन्नुम के साथ। कविता सुनाने तक तो ठीक था पर गाकर तरन्नुम के साथ, घाट पर और भी लोग थे और उनके मध्य मेरा गीत कहीं उनके संगीत प्रेम को आघात न पहुँचा दे, खैर मैंने समझाया देखो प्रिये मेरा गीत घर पर सुन लेना, तुम लता जी का कोई गाना बजा लो न मोबाइल पर। मेरे मोबाइल में गाना कहाँ बजता है। अरे काहे नहीं बजता ! स्मार्ट फोन जो मैंने उपहार में दिया था, उसमें सुनो न, पुराने वाले नोकिया 1100 को छोड़ो। कैसे छोड़ दूँ ..मेरी माँ ने दिया है। अच्छा ठीक है मत छोड़ो पर स्मार्टफोन में बजाओ न। नहीं चलेगा !!क्यों? मोबाइल की बैटरी डाउन है। ओह ये मोबाइल भी कम्बख्त !!..बैटरी धोखा दे गई। तुम अपने मोबाइल की बैटरी इसमें लगा दो न, तुम्हारा मोबाइल तो चार्ज है न, श्रीमती जी बोली। अरे मेरे मोबाइल की बैटरी इसमें नहीं लगेगी। क्यों नही लगेगी? अरे ! कैसे समझाऊँ तुमको दोनों मोबाइल अलग-अलग हैं, बैटरी फिट नहीं हो पाएगी, इसका आकार कुछ बड़ा है। अगर आकार बराबर होता तो क्या तुम्हारी बैटरी इसमें लग जाती ? हाँ लग जाती । पर अभी तो तुमने कहा कि दोनों मोबाइल अलग-अलग हैं फिर तुम्हारे मोबाइल की बैटरी मेरे मोबाइल में कैसे काम करेगी? ओह तुम भी कहाँ मोबाइल और बैटरी के चक्कर में फँस गईं। नहीं मुझे समझाओ पहले। ऐसे समझो कि मोबाइल फोन अलग-अलग होते हैं। किसी में गाना सुना जा सकता है, तो किसी में गाने सुनने के साथ ही साथ उसे देखा भी जा सकता है, जैसा कि तुम्हरा स्मार्टफ़ोन। और किसी में केवल बात ही हो सकती है, न ही गाने सुने जा सकते हैं और न ही देखे जा सकते हैं, जैसे कि नोकिया 1100 मोबाइल। सबकी रचना अलग-अलग है या यूँ समझो कि सबके कार्यों की सीमाएँ अलग-अलग हैं। जैसे कि आँख देख सकती है लेकिन सुन नहीं सकती, कान सुन सकता है लेकिन देख नहीं सकता। इतना तो मैं भी जानती हूँ इसमें नया क्या है। बताता हूँ, अब बैटरी का विचार करो, बैटरी ऊर्जा का स्रोत है, सभी तरह के मोबाइल फ़ोन में एक सा। नोकिया 1100 की बैटरी की ऊर्जा और तुम्हारे स्मार्टफोन की बैटरी की ऊर्जा में कोई अंतर नहीं है। दोनों बिलकुल एक जैसे हैं, कोई अन्तर नहीं है। बैटरी मोबाइल की जान है, बैटरी को हटा देने से मोबाइल का कोई अर्थ नहीं है फिर वो चाहे नोकिया 1100 हो या फिर तुम्हारा आधुनिक स्मार्टफोन, बैटरी के बिना सब बेकार हैं, किसी काम के नहीं। मतलब असली चीज़ बैटरी है? सही समझी, असली चीज़ बैटरी अर्थात ऊर्जा है। हाँ तुम सही कहते हो अब मैं समझी असली चीज़ बैटरी है। हाँ। उसकी हाँ सुन मुझे लगा कि शायद मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो गई अब मैं मोबाइल और बैटरी के बंधन से मुक्त हो गया पर अचानक उसने अगला प्रश्न कर दिया, अगर असली चीज़ बैटरी है तो फिर मोबाइल क्या है और उसकी ज़रुरत क्या है। मोबाइल की ज़रुरत इसलिए है ताकि तुम लता जी का गाना सुन सको। तो मैं कौन हूँ और मैं गाना क्यों सुनना चाहती हूँ। आखिर कौन हूँ मैं? मेरा सिर घूम गया और मेरे मुख से अचानक ही फूट पड़ा... तत त्वम् असि।

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