आजादी का अमृतपान  Shwet Kumar Sinha

आजादी का अमृतपान

भारत की आज़ादी का महत्व बताती एक प्रेरक कहानी

पछुआ हवा का उष्ण झक्कड़ दस वर्षीय अमृत के सलोने मुखड़े से टकराकर उसे सुर्ख बना रहा था। बावजूद इसके मुहल्ले के हमउम्र दोस्तों संग उधम मचाते उसके पाँव थमने का नाम न ले रहे थे। भीतर कमरे में बिछौने पर निढाल पड़ी माँ सन्निपात से ग्रसित होकर सगले दिन बड़बड़ाती रहती। बड़ी बहन आभा सुबह-सबेरे से ही चूल्हे-चौके में जुटती और सूरज के माथे पर चढ़ने तक बरतन-बासन में अपना सिर खपाती रहती। आज कितनी देर से छोटे भाई को खाने के लिए आवाज़ लगाकर थक गई, पर वह न आया। कुछेक मिनट गुज़रे होंगे जब दर-मांदे पिता मोहनलाल काम से लौटकर घर आए और उनकी आँखों की कोटरें टीवी पर किसी उलजलूल परिचर्चा पर टंगी रही। टीवी से फ़ारिग़ हुए तो खाने की थाली लेकर खड़ी बिटिया आभा की नूरानी सूरत देख तमाम दिन की थकान जाती रही। सफ़ेद मेज़पोश से पोशीदा तिपाई पर थाली रख आभा ने बताया कि अमृत ने अभी तक खाना नहीं खाया और सारा दिन यार-दोस्तों संग हुड़दंग करता फिर रहा है। बेटे को बुलाने की ख़ातिर पिता ने टेर लगाई। पर उनकी आवाज़ कमरे की दीवारों से टकराकर भीतर ही गुम हो गई और अमृत के कानों पर जूँ तक न रेंगे।

"अमृत! बंद भी करो अब अपना खेल-तमाशा! पिता जी नाराज़ हो रहे हैं।" बहन के शब्दों में पिता का रोष भांपकर अमृत ने जीतते दाँव की बलि चढ़ाई और खिन्न मन से घर के भीतर दाख़िल हुआ।

"आज़ादी के अमृत महोत्सव का मूल उद्देश्य देशवासियों को आज़ादी की महत्ता से रुबरू कराना है।" कमरे में टीवी पर कोई समाचार चैनल वाला टेर लगाकर अपनी गिरहदार बातों का मतलब समझा रहा था जिससे अमृत को कोई सरोकार नहीं था।

"उफ्फ पिता जी! अंग्रेज़ों के देश छोड़े गए-जमाने की बात हो गई! फिर क्यों हर वक़्त अतीत में खोए रहते हैं?" टीवी का रिमोट हथियाने के चक्कर में अमृत ने होशियारी से कहा। बेटे की बेपरवाही देख मोहनलाल को लगा जैसे उसके लिए आज़ादी का कोई मोल नहीं। सोचते रहे कि काश हर पीढ़ी खून-पसीने से मिली आज़ादी की महत्ता समझ पाती! समझ पाती कि अपने ही घर में गुलामी की बेड़ियों से जकड़कर रहना कितना जटिल होता है! समझ पाती कि कैसे अपने प्राणों की आहुति देकर वीर सपूतों ने भारतमाता को बाहरी ताकतों से मुक्त कराया! पर इससे पहले कि बेटे को कुछ समझा पाते, धूम-धड़ाका वाला कोई कानफोड़ू संगीत टीवी स्क्रीन पर उभरने लगा और उसके आगे बैठ अमृत इत्मीनान से खाने के कोर चबाता रहा। बेटे को अभी कुछ भी समझाना-बुझाना पिता को बेमानी ही लगा। पर ज़ेहन में कसक सी रह गई कि सामयिक नस्ल आज़ादी की अहमियत भुलाती जा रही है।

ख़ैर...पेटपूजा से निपटकर और धर्मपत्नी का हाल-समाचार लेकर मोहनलाल काम पर वापस लौट गए। जाते वक़्त बेटे को माँ के कमरे में निफ़राम सोया देख चेहरे पर एक स्मित तिर गई। अकस्मात ही कानों में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का आज़ादी का अमृत महोत्सव वाला संदेश गूँजने लगा। उन्होंने सच ही तो बताया था कि हमारे पूर्वजों ने सीने पर गोलियाँ खाई हैं तभी आज हम अपने घरों में चैन की नींद सो पाते हैं। ढेर सारी उलझेड़ों का गुंजलक मन में लिए मोहनलाल अपनी रौ में कारखाने की तरफ बढ़ते रहे।

पिता के जाने के पश्चात बचा-खुचा काम निपटाकर आभा कमर सीधी करने कुछ पल चारपाई पर लेटी तो थकी पलकें कब लुढ़क गई, भान ही न रहा। थकान के आवेग में बाहर किवाड़ पर सांकल चढ़ाना भी रह ही गया और इस निपट बियाबान में घर खुला पाकर कब-कौन गाय-गोरू भीतर घुस आवे कौन भरोसा! हालांकि अबकी ऐसा कुछ न हुआ। पर जो हुआ वह रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। घंटे भर बाद किसी की रोवाराहट कानों में पड़ी तो माँ के कमरे में सोये अमृत की आँखें खुल गईं। उनींदे ही बाहर कमरे में झाँककर देखा तो बचीखुची नींद भी उड़नछू हो गई और दिल धाड़-धाड़ मारने लगा। दरअसल बाहर कमरे में चेहरे पर मुरेठा बाँधे कोई चार-पाँच अधेड़ उम्रवाला कठंगर घुस आया था। बहन आभा भी वहीं चारपाई पर रस्सियों से बँधी पड़ी थी। अमृत को लगा कि लूट-खसोट के इरादे से आए वे अजाने आततायी घर की महँगी वस्तुएँ बटोरकर चलते बनेंगे। पर उसे कहाँ पता था कि ये सभी शातिर अपराधी हैं और पुलिस की गिरफ्त में सेंध लगाकर भागे हैं। किवाड़ खुला देख सभी बाहरकत घर के भीतर घुस आए थे। पर जब आभा ने प्रतिरोध किया तो उसे चारपाई से बाँध दिया।

कुछ ही क्षण में अमृत समझ चुका था कि अब वह अपने ही घर में क़ैद होकर रह गया है। किसी बाहरवाले की वजह से उसकी बेबाक़ ज़िंदगी क़फ़स* (कैदखाना) में तब्दील हो चुकी थी। पास ही बेसुध पड़ी माँ का ख़्याल आया तो चिंता दुगुनी हो गई। पता नहीं ये उचक्के अभी और कितना उधम मचाएँगे। सोचकर ही वह अंतस तक काँप उठा। कुछ घंटे पहले तक जो बालमन आज़ादी को बेमतलब की बातें बता रहा था, उसकी अहमियत का उसे अंदाज़ा लग चुका था। दिमाग में चल रही मुबहम बातों पर वक़्त ज़ाया किए बग़ैर अब घर और घरवालों को बचाना ज़रूरी था। पर अमृत की फ़ितूरी दिमाग में कोई तरक़ीब न उभर रही थी जिससे अपनों की जान बचाई जा सके। तभी आसमां मानो सिर पर आ गिरा जब धड़ाम की आवाज़ के साथ बाहर से किसी ने उसकी कोठरी के भिड़े दरवाज़े पर जोरदार प्रहार किया और किवाड़ के दोनों पल्ले खुल गए। कर्कश आवाज़ से शारीरिक और मानसिक तवाज़ुन खो चुकी माँ फिर से बड़बड़ाने लगी और कमरे की दीवार से चिपके अमृत की तो जैसे साँसें ही ठहर गईं। बालों से खींचकर उस अचाहे मेहमान ने अमृत को उसकी बहन के पास लाकर चारपाई से जकड़ दिया और हिदायत दी कि जरा भी होशियारी उसकी माँ के प्राण-पखेरू हरने की वजह बन सकते हैं। लाचार अमृत की निगाहें आततायियों की हरेक हरक़त पर टिकी रहीं जिन्होंने पहले तो रसोई में छककर दावत उड़ाई फिर घर में रखे सामानों को बड़ी बेरहमी से तितर-बितर करना शुरु कर दिया जैसे कीमती वस्तुओं को तलाश रहे हों। पर दीनता के ठौर में सबूरी से इतर नफ़ासत की गुंजाइश कहाँ!

जकड़बंद अमृत ने बदमाशों की बातचीत से इतना समझा कि वे सब पुलिस की गिरफ्त से भागकर आए हैं। पर उसके कच्चे मगज में कोई तरकीब न सूझ रही थी जिससे इन मुजरिमीन* (मुजरिम का बहुवचन) से पीछा छुड़ाया जा सके। ऊपर से पास ही बंधी पड़ी बहन के आँसू थमने का नाम न ले रहे थे। चिल्लमचिल्ली से बचने की ख़ातिर आततायियों ने उन दोनों के मुँह पर पट्टियाँ बाँध रखी थी। अमृत का दिमाग अब द्रुत गति से चलने लगा था और अंतत: उसने ही कोई उपाय निकाला। दम ब दम मिन्नतें करके उसने उचक्कों में से एक को राज़ी कर ही लिया कि उसे लघुशंका जाने की इजाज़त दे दें अन्यथा लू की इस तपिश में दुर्गंध से सबका एक कमरे में रहना मुहाल हो जाएगा। आफ़त की इस घड़ी में अमृत की चुहल से बहन आशंकित थी। पर अमृत अपनी बातों पर दृढ़ रहा। एक बदमाश ने उसके रस्सी की जकड़ को ढीला किया और मुख पर बँधी पट्टी समेत पेशाबखाने तक लेकर आया। बहन आभा अचरज में थी कि कैसे इस प्रतिकूल परिस्थिति में भी अमृत की ख़ुराफ़ाती बुद्धि इतनी चतुराई से कार्य कर सकती है। पेशाबखाने के भीतर आकर अमृत ने किवाड़ भिड़ाया और एक ही फलाँग में आदमकद रोशनदान को तड़पकर पड़ोस के घर से मदद की आर्त पुकार लगायी। मिनट भी न लगे होंगे जब अमृत ने समूची घटना का सार सुनाया और कोतवाल को रपट करने की गुहार लगा वापिस से रोशनदान के रास्ते पेशाबखाने में दाख़िल हो गया। बाहर खड़े दराज़क़द पहरू के शक़ की सुई अभी हिली ही थी कि तभी अमृत पेशाबखाने से बाहर निकला। उसका दाँत बिदोरना उचक्के को नागवार गुजरा और कमरे में लाकर वापिस से उसे चारपाई से कस दिया। उसी चारपाई से जकड़ी आभा इस हौल से आतंकित थी कि कहीं अमृत के बावलेपन का ख़ामियाज़ा पूरे परिवार को न भुगतना पड़े। पर हुआ उसका उलट, जब थोड़ी ही देर बाद निरी सन्नाटा चिल्लमचिल्ली में तब्दील हो गया और पुलिस समेत पूरा गाँव उन ख़तरनाक भगोड़ों पर टूट पड़ा। सोचने का भी मौका न मिला और इससे पहले कि उपद्रवी आततायी अपने बचाव में कुछ कर पाते, गाँववालो के हत्थे चढ़कर उनकी अय्यारी ने दम तोड़ दिया। सभी भगोड़े अपराधियों को पुलिस ने अपने क़ब्ज़े में कर लिया और अमृत की बहादुरी की भूरी-भूरी प्रशंसा की। ख़बर लगते ही पिता मोहनलाल सिर पर पाँव लिए घर पहुँचे और चैन की साँस भरी जब जाना कि संकट टल गया है। गर्व से उनका सीना फूलकर चौड़ा हो गया जब पुलिस के आला अधिकारी अमृत को उसकी दिलेरी के लिए शाबासी देते दिखे। अनायास ही दृष्टिफ़लक़ पर वे दृश्य उभर आये जब बेटे को आज़ादी का सबक़ पढ़ाने का जतन कर रहे थे। अपनी ज़मीं पर क्षण भर परतंत्र रहकर बेटे ने न केवल आज़ादी की महत्ता पहचानी वरन् अपनी बहादुरी और सूझबूझ से उसने पूरे गाँववालों को आज़ादी का अमृतपान कराया। अमृत को उसकी दिलेरी के लिए सरकार की तरफ से आनेवाले स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली में मेडल देकर सम्मानित करने की घोषणा की गई।

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