साक्षरता से साक्षात्कार Upendra Prasad
साक्षरता से साक्षात्कार
साक्षर होना समय का तकाजा है। राज्य सरकार ने अपने प्रदेश में शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य हासिल करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान का बिगुल फूँका। संयोगवश मुझे सहायक शिक्षक के रूप में इस अभियान का हिस्सा बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उन दिनों मैं कई प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटा था। पर इस सुनहले अवसर को पाकर मैं अपने को रोक न सका।
अध्ययन की कड़ी समाप्त होते ही मैं अध्यापन के लिए एक सुदूर गाँव में नियुक्त हुआ। यद्यपि प्रतियोगिता की कर्मनाशा में गोता लगाते ग्रामीण परिवेश रास नहीं आ रहा था तथापि टैगोर की विश्व-भारती में परिम्लान मन कुछ परखने को आगे बढ़ा। नवनिहालों के निस्पृह संसर्ग से अब लिप्सा का आवरण छँट चुका था। सचमुच शिष्य की साधना में मेरा सर्वस्व विलोपन हो चला था।
समय अब अवसर की तलाश कर रहा था, तभी सरकार ने साक्षरता के लिए सर्व-शिक्षा अभियान का बिगुल फूँका। अनन्य उत्कंठा से उद्वेलित मन अभियान का पतवार पकड़ा। बच्चे, अभिभावक एवं सहयोगी शिक्षक सब-के- सब एक अदम्य उत्साह से हमारी नैया को निहार रहे थे। यद्यपि पाठशाला के प्रांगण में पैर रखते ही बच्चों की एक अच्छी खासी संख्या दर्ज कर अपनी उपस्थिति की धाक पहले ही जमा चुका था तथापि अपने नए प्रायोगिक परीक्षण के लिए काफी धैर्य, संयम और आत्मविश्वास की आवश्यकता थी।
प्रयोग की शुरुआत चेतना, जागृति और अभिरुचि से हुई। इसके प्रयोजनार्थ बच्चों की एक विशाल फौज पहले ही तैयार कर ली थी। सच पूछिए, तो इस फौज में अधिकांशत: ऐसे बच्चे शामिल थे जिन्हें पढ़ाई के नाम पर पख़ाना चटक जाता था। बहरहाल भले-बुरे साधनों का ख्याल न कर अपनी संपूर्ण शक्ति साध्य को साधने में लगा दी।
अभियान का आरंभ नित्य प्रभात फेरियों से होता। विशाल बैनर के तले पंक्तिबद्ध टोलियाँ, शिक्षकों की मित्र-मंडली के साथ कभी अनुशासन का बोध कराती तो कभी नारों से कोहराम मचाती। घर-द्वार, चौक-चौराहा, छद्म - पद्म से पट चुका था। सबकी जुबान पर अब "पढ़ो या मरो" का नारा विराजमान हो गया जो किसी भी मायने में महात्मा गाँधी के आह्वान "करो या मरो" से उन्नीस न था। बच्चे बड़े हर्ष से कहते फिरते -
"हम बच्चों का एक ही नारा,
शिक्षा है अधिकार हमारा।"
भले ही इन्हें शिक्षा के अधिकार से कुछ लेना-देना न था, परंतु घूमने का अधिकार तो इन्हें प्राप्त ही था।
परंपरा की पुरातन शैली अब निष्प्राण हो चली थी तथापि इसने जीते-जी हमारी कार्यशाला तैयार कर दी थी, जहाँ हम अपने प्रयोग की सफलता सुनिश्चित कर सकते थे।
अभियान का दूसरा दौर आरंभ हुआ। पुरानी लीक से बिल्कुल हट कर। अब स्वयं घर-घर जाने लगा। समस्या सामने आती, कुछ आर्थिक, कुछ सामाजिक और कुछ राजनीतिक, जो अक्सर गाँव के गलियारे में हुआ करती है। वाद-विवाद भी खूब चलता और अंत में कुछ आश्वासन पाकर वापस आता। आश्वासन की आस में अन्वेषण की जिज्ञासा प्रबल हुई।
अब मैं उन देव बालकों से मिलने की धृष्टता की जिनके दर्शन दुर्लभ थे। कहीं तालों में, तो कहीं तलहटियों में, अपना अड्डा जमाए नजर आए। गुल्ली, डंडा आसपास में समय जाया करने के सिवा कुछ और न सूझा। प्रकट होकर विनती की। प्रसाद का प्रलोभन दिया - नि:शुल्क नामांकन, खेल -सामग्री, भोजन दोपहर का। किंतु सारा का सारा प्रयास, व्यर्थ। प्रसाद पाते ही बालक देव लोक को।
समय का तकाजा था। रुख अब रचनात्मक किया। भूलते भागते क्षण को साक्षरता में पिरोया। भविष्य की परछाई में वास्तविकता का अहसास कराया। फिर ज्ञान के लक्ष्यविहीन तंतुओं को जोड़कर झंकृत किया कि बच्चे आनंद का अनुभव करने लगे। गहरे धुंध में आशा की कुछ किरण छिटकी। हमने राहत की साँस ली। अभियान को और तेज किया। बच्चों की सुसुप्त चेतना जाग उठी। ज्ञान का निषेचन हुआ। बालमन अब सीखने की ओर उन्मुख हुआ। सरेह में संबोधि पाकर हौसला मेरा आफजायी हुआ।
जो देव अपनी दीनता से दग्ध था, जिनके दर्शन दुर्लभ थे, अब ज्ञान-पिपासु बनकर विद्यालय का चंदन लगाने को लालायित थे। अभिभावक देखकर चमत्कार को नमस्कार करते। "आधी रोटी खाएँगे, फिर भी स्कूल जाएँगे" चरितार्थ करते बच्चे, गली-कूचियों से निकलकर विद्यालय की शोभा बढ़ाने लगे।
सुधार की नब्ज टटोलने के बाद अब सँवारने की बारी थी। ऐसा कुछ करता, इससे पहले ही तबीयत छुट्टी कर दी।
अवकाश से जब वापस आया तो एक विचित्र नजारा देखने को मिला। जिन बच्चों को विद्यालय लाने में एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी थी, आज एकाएक सभी नदारद! पूछने पर पता चला - कॉन्वेंट से महंगा तो सरकार का स्कूल ही है। स्थिति को मैं भाँप गया। नामांकन पंजी देखी तो सूची सचमुच टस-से-मस न थी। मुझे बहुत बुरा लगा। कारण जानने की जुर्रत की - आखिर लड़कों का नामांकन क्यों नहीं किया गया? प्रधानाध्यापक अचानक बिफर पड़े - "आप अपना काम कीजिए, दूसरों के काम से आपको क्या मतलब? बिना दान के तो दर्शन भी न होते, यहाँ तो हम नामांकन करते हैं।" सुनते ही मैं सन्न रह गया। खरबूजे को देखकर खरबूजा भी रंग पकड़ने लगा। नए-नए मास्टर बने हैं, खून अभी दौड़ेगा ही! कुछ दिन बाद देखिएगा इनकी क्या स्थिति रहती है? वज्रपात करते ऐसे शिक्षक बंधुओं की ताहिना थी जिनकी महीनों से नींद हराम हो चुकी थी। मेरे पैरों तले धरती खिसकने लगी। तभी मध्यांतर की घंटी बजी। मैं किसी तरह टल गया।
बाहर आकर एक कुर्सी का सहारा लिया। मलिन मुद्रा की गह्वर में शुरू हुआ मन का अंतर्द्वंद - काश! मैं उन बच्चों एवं अभिभावकों से कोई वादा न किया होता! कौन- सा मुँह दिखाऊँगा उन्हें? सबसे बढ़कर तो कान्वेंट द्वारा किए जा रहे शिक्षा के शोषण तथा धन के दोहन से मेरा जी आक्रांत हो उठा। मन ही मन अब बोरिया-बिस्तर समेटने की बात सोचने लगा, तभी एक हनहनाती हुई गाड़ी प्रांगण में प्रवेश की। दृष्टि दौड़ाई तो साक्षात जिला शिक्षा अधीक्षक। झटपट अपने शिक्षक बंधुओं की तंद्रा तोड़ी, लगा जैसे बिजली ही गिर पड़ी हो। खैरियत थी कि मध्यांतर का वक्त था वरना सब की छुट्टी तय थी। सैर-सपाटे पर निकले शिक्षक भनक लगते ही दौड़ पड़े। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। पर प्रधानाध्यापक अभी भी चिर-निद्रा में ही लीन थे। पास जाकर जोर से झकझोरा तो उनकी घिग्गी बँध गई - ये..... लीजिये.... जरा... जल्दी......मैं सब कुछ समझ गया। नामांकन पंजी थामे एक गलियारे से निकला और एक कमरे में जाकर सुपरफास्ट की रफ्तार पकड़ा। देखते ही देखते सबके नाम दर्ज। फिर उन बच्चों के पास दुपहरी भोजन का निमंत्रण भेजा। सभी बच्चे हाजिर हो गए। तत्पश्चात भोजन की शर्त पूरी की।
मध्यांतर खत्म हुआ। कक्षाएँ लग गई। वास्तव में मध्यांतर के मध्य एक विधवा विद्यालय सधवा बन गया था। अचानक आलाकमान का हुक्म हुआ - नामांकन पंजी पेश करें। कोई अगल झाँकते तो कोई बगल झाँकते, पर हाजिर करने की हिम्मत न करते। मैंने आहिस्ते-से पंजी लाकर बढ़ा दिया। तनी हुई त्योंढ़ी ढीली पड़ी। सब ने राहत की साँस ली। तभी अपनी कुर्सी से उठे और वर्ग निरीक्षण को चल पड़े। हम सभी उनके पीछे-पीछे लग गए जैसे मंत्री के पीछे सैकड़ो संत्री चलते हैं।
प्रसन्नता की पंखुड़ियाँ परत-दर-परत खुलती जा रही थीं। अब हम लोग कक्ष के छोर तक पहुँच चुके थे। निरीक्षण खत्म हुआ। हम सभी वर्ग से बाहर आ गए। निरीक्षण से निवृत कदम कार्यालय - कक्ष की ओर बढ़ा। अचानक बॉस रुक गए, हम सबकी साँस टँग गई। तभी पीछे मुड़े और बोले- धन्यवाद!साक्षरता अभियान सफल रहा। हम आपके प्रति आभार प्रकट करते हैं। सुनते ही मन बाँसो उछला। "आन के धन पर लक्ष्मीनारायण!" अपनी खुशियों को थामे प्रधानाध्यापक ने बॉस को विदा किया।
प्रेमाश्रु छलक पड़े। भर्राये स्वर से गले लगाए और अपनी करनी पर पश्चाताप करने लगे। मन का मैल मिट चुका था। अगले दिन प्रभात हुआ - एक नई उमंग का, एक नई चेतना का, जिसने शिष्य, गुरु और अभिभावक सब को एक साथ साक्षरता का मूल पाठ पढ़ाया। कर्तव्य, लगन और जिम्मेदारी, सब के अंग बन गए।
अब मैंने आश्वस्त हो अपना तन-मन अर्पित करने का निश्चय किया, पर सचमुच इस बार बोरिया-बिस्तर समेटने का वक्त आ गया था। सचिवालय की सेवा बड़ी बेसर्बी से दरवाजे पर दस्तक दे रही थी। डबडबायी आँखों से मैंने अपने शिष्य, शिक्षक और अभिभावकों से विदा ली। आज संतोष इस बात का है कि साक्षरता से साक्षात्कार में मेरे समय छूटे, मेरे मन टूटे, पर कर्णधारों के करम न फूटे।