चाशनी  Mohanjeet Kukreja

चाशनी

एक लघुकथा...

तेज़ी से मुड़ती एक बस से डर कर वो पीछे हटा, मगर पीछे से आते एक स्कूटर ने उसे फिर आगे होने को मजबूर कर दिया।

मैं परेशान था कि उस छोटे से परन्तु भीड़-भाड़ वाले चौराहे के बीचों-बीच खड़ा आख़िर वो कर क्या रहा था...चारों तरफ़ से निकलती, मुड़ती गाड़ियों से घबराकर वो तेज़ी से कभी आगे होता और कभी पीछे हटता, कभी दाएँ भागता तो कभी बाएँ! हैरानी की बात मगर यह थी कि बड़ी ढिठाई से हर बार वापिस उसी जगह आ खड़ा होता।

आवारा सा लग रहा था शक़्ल-सूरत से और सेहत मानो प्रतिनिधित्व कर रही हो हिंदुस्तान में ग़रीबी-रेखा से नीचे रहने वाली जनता का।

मैंने थोड़ा आगे होकर ध्यान से देखा उस जगह को जो उसे लगातार आकर्षित कर रही थी, पास की दुकान से जलेबी खाकर किसी ने चाशनी भरे पत्तों को वहाँ फेंक दिया था और वो बेवकूफ़ जैसे अपनी जान को ताक पर रखे, एक-एक बूँद चट कर जाना चाहता था!

तभी मुझे अपनी बस आती दिखी, चौराहा पार कर के उसके हमारे स्टैंड तक पहुँचने के बीच में एक अजीब सी गुर्राहट-भरी चीख सुनाई दी। कॉलेज जाने की जल्दी थी, मैंने भाग कर बस पकड़ ली।

उत्सुकता से मैंने पीछे के शीशे में से बाहर देखा....उस कुत्ते का ख़ून चाशनी के साथ मिलकर पूरी सड़क पर बह रहा था!

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