दो बीघा ज़मीन  VIVEK ROUSHAN

दो बीघा ज़मीन

ज़मीन की कीमत

मोतीलाल एक छोटा किसान था जिसके पास पूर्वजों की दो बीघा ज़मीन थी। मोतीलाल अपनी पत्नी, बेटे अशोक और बेटी गुड़िया के साथ अपने पैतृक गाँव में रहता था। मोतीलाल यूँ तो एक छोटा किसान था पर एक बहुत समझदार और सुलझा हुआ व्यक्ति था। गाँव के और छोटे किसान जहाँ अपनी उपज की बची हुई धनराशि से अपने खेत को बढ़ाने में लगे हुए थे वहीं मोतीलाल अपनी उपज की बचत से अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने में लगा हुआ था। यही सोच मोतीलाल को अपने गाँव के किसान भाईयों से अलग करती थी। गाँव के किसान लोग अपनी ज़मीन को दो से पांच, पांच से दस, दस से पंद्रह बीघा करने के लिए अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाजए अपने साथ खेतो में काम करवाते, वहीं मोतीलाल अकेले ही काम करता और अपने बच्चों को पढ़ने स्कूल भेजता।

बीस साल बीत जाने के बाद जहाँ गाँव के किसानों की ज़मीन बढ़ कर दो से चार, पाँच से दस बीघा हो गई वहीं मोतीलाल की ज़मीन दो की दो बीघा ही रही। पर मोतीलाल ने बीस सालो में अपनी मेहनत से जो कमाया था वो दूसरे किसानो ने नहीं कमाया। मोतीलाल के दोनों बच्चे पढ़-लिख कर अच्छे संस्थान में नौकरी कर रहे थे। बेटा अशोक एक बड़े प्राइवेट संस्थान में काम कर रहा था और बेटी गुड़िया बैंक में कर्मचारी बन गई थी। उसी दो बीघा ज़मीन की आमदनी से मोतीलाल ने अपनी बेटी की शादी भी अच्छे से की।

अशोक अब बड़ा आदमी हो गया था, गाँव में उसकी इज़्ज़त और बढ़ गई थी। अपने बेटे की सफलता से दोनों माँ-बाप बहुत खुश थे। इसी बीच मोतीलाल ने अच्छा रिश्ता देखकर एक अच्छी लड़की से अशोक की शादी करवा दी। विवाह समारोह ख़त्म होने के पाँच दिन बाद अशोक अपनी पत्नी को लेकर बाहर चला गया। मोतीलाल और उनकी पत्नी की भी उम्र बढ़ रही था, कभी-कबार तबीयत ख़राब हो जाती थी। जब कभी तबीयत ख़राब  हो जाया करती तो अशोक की माँ फ़ोन कर के अशोक को गाँव बुलाया करती थी। इससे अशोक को बहुत परेशानी होती थी, इस परेशानी से बचने के लिए अशोक और उसकी पत्नी ने अपने पिता मोतीलाल को दो बीघा ज़मीन बेच देने की सलाह दी और साथ आकर शहर में रहने को कहा। मोतीलाल ने ज़मीन बेचने की बात सुनते ही फ़ोन काट दिया और गुस्से में अपनी पत्नी को कहा कि अगर मैं मर भी जाऊँ तो तुम अशोक को फ़ोन मत करना, मुझसे ज़मीन बेचने को कह रहा है, वो जमीन जिसने हमे जीवन दिया, उसको नौकरी दी उसी ज़मीन को बेचने की बात कर रहा है मूर्ख। अशोक भी इधर गुस्से में अपनी पत्नी से कह रहा था की पता नहीं पिताजी की दो बीघा ज़मीन में कौन सी जान अटकी है कि उसे छोड़ना नहीं चाहते है, अब मुझे उनसे बात ही नहीं करनी है।

बीमारी की वजह से अशोक के माता-पिता की मृत्यु हो गई। अशोक को बहुत दुःख पहुँचा था अपने माता-पिता के मृत्यु से। एक दिन अशोक ने अपनी पत्नी से कहा कि गाँव में अब रहनेवाला कोई है नहीं तो वो दो बीघा ज़मीन को बेच देने में ही भलाई है, अगली बार जब गाँव जाऊँगा तो ज़मीन को अच्छी कीमत पर बेच दूँगा। अशोक की पत्नी ने भी हामी भर दी।

अशोक के माता-पिता को गुज़रे हुए अभी तीन-चार महीने ही हुए थे कि अचानक बाजार में मंदी का दौर चला आया और बहुत सी कम्पनियों ने अपने-अपने कर्मचारियों को निकाल दिया था जिसमें एक नाम अशोक का भी था। अशोक बहुत परेशान हो गया था, उसको सदमा लग गया था, मानो उसके पैरों तले से ज़मीन खिसक गई थी, अशोक को विश्वास नहीं हो रहा था कि अब उसके पास नौकरी नहीं है। लाखो चिट्ठियाँ अनेक लोग रोज़ कंपनी को भेजते पर कोई जवाब न मिलता, अशोक ने भी दर्जनों बार चिट्ठियाँ लिखी पर उसका भी कोई जवाब न आया। समय बीत रहा था और अशोक के खाते में बाकी राशि भी ख़त्म हो रही थी। एक वक़्त आया कि जब अशोक के पास मकान के किराये के पैसे देने भर के पैसे नहीं बचे थे। ऐसे सख्त हालत में अशोक को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे, तभी उसकी पत्नी ने उससे कहा की क्यों न हम लोग कुछ दिन के लिए आपके गाँव चलते हैं, आपके पिताजी के घर। अशोक के पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था, अशोक अपनी पत्नी को लेकर अगले दिन अपने गाँव चला गया। कुछ दिन गाँव में रहने के बाद अशोक ने गाँव के दूसरे किसानों की मदद लेकर अपने खेत में फसल उपजाई। अशोक खेती कर के अपना और अपनी पत्नी का जीवन पोषण तीन-चार वर्षों तक करता रहा। अशोक खेती भी करता और नई नौकरी के लिए अलग-अलग कंपनियों में दरख्वास्त भी भेजता रहता। इस दुःख के क्षण में अशोक अपने पिता मोतीलाल और अपनी माँ को बहुत याद करता। अशोक की पत्नी भी अपने सास-ससुर को ढेरों दुआएँ दिया करती और बोलती अशोक से कि अगर आज आपके पिताजी की दो बीघा ज़मीन न होती तो हमलोग कहीं के न रहते, सड़क पर आ गए होते, दर-दर भटकने को मज़बूर हो गए होते। जिस ज़मीन को हम लोग बेचने की बात करते थे आज वही ज़मीन हमे नया जीवन दे गई।

इसी दौरान अशोक जिस कंपनी में काम करता था उस कंपनी से अशोक को नौकरी के लिए चिट्ठी आई। अशोक और उसकी पत्नी चिट्ठी देख कर बहुत खुश हुए, दोनों लोग फिर से शहर को चले गए और हँसी-ख़ुशी से अपना जीवन व्यतीत करने लगे। अब अशोक दो बीघा ज़मीन को बेचने की कभी बात न करता अपनी पत्नी से। अशोक छुट्टियों में अपने गाँव भी जाता और अपने खेत में कुछ फसल भी उपजाता। अशोक को एहसास हो गया था कि क्यों उसके पिता मोतीलाल गुस्सा हो जाते थे जब वो दो बीघा ज़मीन बेचने की बात करता था। अशोक को पता चल गया था कि परेशानी और दुःख के क्षण में अपने पूर्वजों की ज़मीन-जायदाद ही हमारी मदद करती है और हमे अपमानित होने से बचाती है।

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