वो शहर कहीं खो गया  Rahul Kumar

वो शहर कहीं खो गया

नब्बे के दशक में जन्मे एक लड़के ने जिस शहर को देखा, जहाँ पला- बढ़ा, आज लगभग दो दशक बाद फिर से वापस उसी शहर को करीब से देख रहा है। जीवन के शुरूआती दौर में उसने जिस शहर में समय बिताया, वक़्त के साथ सामाजिक और नैतिक परिवर्तन ने उसके हृदय को मर्माहत कर दिया।

"इतिहास के पृष्ठों पर इसे अखंड भारतवर्ष की सबसे शक्तिशाली महाजनपद की राजधानी बताया जाता है। कुदरत ने जिसे पीने को पवित्र गंगाजल दिया और खाने को उसी गंगा के मैदान में उपजने वाला अन्न। गंगा इस शहर के लिए सिर्फ एक नदी ही नहीं, एक उपहार है जो अपने साथ हर पल काशी से बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद भी साथ में समेट कर लाती है और इस शहर पर सर्वदा लुटाती है। सब उस महादेव की ही तो कृपा है कि इस शहर पर कभी कोई भीषण संकट नहीं आया, गंगा ने माँ के जैसे इस शहर की परवरिश की। कई मसले तो इस शहर के कचहरी तक जाने से पहले ही सुलझ जाते हैं, बस गंगा की सौगंध खाने भर की देर है। गंगा की अविरल पवित्र धारा ने यहाँ के लोगों के जीवन और विचारों में भी सादगी और पवित्रता घोल दी है।" आज की 10वीं कक्षा की शुरुआत महाशय मलिक रामजी ने कुछ इन्हीं शब्दों से की। मलिक रामजी वैसे तो खुद को हर विषय में श्रेष्ठ मानते हैं बस गणित से उनकी न बनती थी। लेकिन, सामाजिक विज्ञान में उनके ज्ञान का लोहा सभी मानते थे। उनके पढ़ाने के तरीके, ओजस्वी शब्द बहुधा छात्रों को सम्मोहित कर देते थे। आज इन वाक्यों का कुछ ऐसा ही जादू गोपाल जी पर हुआ। वैसे तो गोपाल जी ने नब्बे की दशक के शुरुआती दौर से ही इस शहर को देखा है, मगर आज जैसे उसे इस शहर से रूहानी सी मोहब्बत हो गई।

गोपाल जी एक मध्यमवर्गीय परिवार का सबसे कनिष्ठ सदस्य है और शरारत का दूसरा नाम भी। शाम होते ही पूरे मोहल्ले के तकरीबन पच्चीसों बच्चों की मंडली बन जाती और दौड़-धूप कर बच्चे पसीने भी बहाते और साथ ही कभी-कभी चोट लगने पर खून भी। इन चीजों ने गोपाल जी को शारीरिक और मानसिक तौर पर मजबूत तो बनाया ही, साथ ही आपसी भेदभाव को मिटाकर समूह में आगे बढ़ने का सबक भी सिखा दिया। एक ओर जहाँ अपने विद्यालय की पढाई में अव्वल था तो शैतानी में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देता था। कभी-कभी शाम में अपने दोस्तों के साथ ज्यादा से ज्यादा फोच्का खाने की प्रतियोगिता करता तो कभी दोस्तों के साथ बैठकर पूरे शहर का विवेचन करता। घर में उसे ₹10 का मासिक जेब खर्च भी मिलता और महीनों की मटरगस्ती के बाद ₹2 बच भी जाता। विशेष मौकों पर परिवार और दोस्तों के साथ गंगा तट पर भी जाता और बस गंगा की अविरल कल-कल करती धारा को निहारता रहता। सड़क किनारे फुटकर के दुकानदारों से तो इसकी गहरी दोस्ती सी हो गई थी क्योंकि रोज़ का आना जाना जो था। ये शहर भारत के अन्य विकसित शहरों जैसा समृद्ध तो नहीं लेकिन प्रेम और भाईचारे ने हर किसी को हर एक से बाँध रखा था, तभी तो इस छोटी सी उम्र में गोपाल अपने मोहल्ले के लगभग सभी बच्चों का दोस्त था।

वक़्त निकलता गया और एक समय वह भी आया जब आगे की पढ़ाई के लिए गोपाल जी को अपने शहर से दूर जाने की नौबत आई। उसे वह शहर छोड़ना पड़ा जो उसकी पहचान है, जो उसकी रूह में बसता है, जिसने उसे ज़िन्दगी के मायने समझाए। रात की ट्रेन थी, घरवाले और कुछ क़रीबी मित्रों की टोली स्टेशन तक साथ आई थी। गोपाल की आँखें नम थीं, उसका शहर छूट रहा था, उसके दोस्त और गलियाँ छूट रही थी। चल पड़ा था गंगा के मीठे पानी से रिश्ता तोड़, समुद्र के खारे पानी के किनारे बसे एक अनजान शहर और अजनबी लोगों से एक नया रिश्ता बनाने। नया शहर, नए लोग, नई संस्कृति, नए रिवाज, पर इन हर नएपन में गोपाल अपने उस पुराने शहर को खोजता। दस से भी ज्यादा साल निकल गए मगर उस खारे पानी में कोई मिठास नहीं मिली। यूँ तो बीच-बीच में घर आता जाता था, मगर लोगों से मिलने-जुलने की होड़ में वह अपने शहर से मिलना भूल जाता था। उस अनजाने से शहर में नया घर बनाते-बनाते, उसे बरबस अपने शहर का वह पुराना घर याद आ रहा था। उन तथाकथित समृद्ध परिचितों के बीच भी अपने बचपन की यारी याद आ रही थी। इस बार उसने ठान ली कि फुर्सत निकालकर वह उन गलियों में फिर से जाएगा जिसे दशकों पहले छोड़ आया था, गंगा मैय्या के उस तट पर फिर से बैठकर उन मल्लाहों के लोकसंगीत में खुद को टटोलेगा।

छुट्टियों में घर आया और इस दफा अपनी यादों की वह किताब लिए अपने उसी पुराने शहर को खोजने निकला। यूँ तो यह किताब उसके बचपन की कमाई थी, उसका हर पन्ना उसकी जी हुई ज़िन्दगी था और आज उसके लिए मार्गदर्शक पुस्तिका। उन्हीं यादों के साथ पूरी शाम उस शहर को खोजता रहा जिससे वह वर्षों पहले कुछ चंद सपनों को पूरा करने के लिए विदाई लिया था। उस मैदान को खोजा जहाँ सालों पहले बच्चे खेलते थे, मगर आज बस अड्डा बन गया था। उसका वो बचपन का फोच्का वाला अब पानीपुरी बेचने लगा था। सारी गालियाँ सुनसान थीं, दौड़ लगाते बच्चों की आवाज कंधे पर लदे किताबों से भरी थैले के नीचे दब गई थी। गली क्रिकेट और पिट्टो जैसे खेल अब के बच्चों को खेलने की फ़ुरसत तक नहीं थी। लैपटॉप, इन्टरनेट और मोबाइल ने एक तरफ बच्चों के लिए घर बैठे ज्ञान के कई नए आयाम तो लाए, मगर साथ में इनसे इनका बचपना ले गए। अधिकांश बच्चे आँखों में चश्मा लगाए इलेक्ट्रॉनिक गेम्स से चिपक गए थे। स्कूल के बच्चों की शरारतों में आज भोलेपन की जगह अश्लीलता ने ले ली थी। सड़क के किनारे वाली दुकानों की जगह बड़े-बड़े मॉल थे। हवा-पानी सब में ज़हर घुलता गया था, खुली हवा में घूमने वाले आज मास्क लगाए घूम रहे थे। गंगा भी मानो रूठ कर इस शहर से जा रही थी, लोगों ने उसे भी कचरे से भर दिया था।

पूरे परिभ्रमण की थकान के बाद उदास मन से गोपाल घर लौटा। उसे उसकी यादों की किताब वाला वह शहर कहीं नहीं दिखा। जिस शहर का दंभ उसे आजीवन था उसी शहर में आज खुद को अजनबी पा रहा था। उसे घुटन हो रही थी कि दर्द से कराहते शहर की आवाज़ कोई नहीं सुन रहा। विकास के नाम पर गोपाल के उस शहर से बच्चों का खेल का वह मैदान चला गया, उसकी माँ गंगा जा रही थी, बस बचे थे तो लाखों की संख्या में सड़क पर एक दूसरे को गिरा कर आगे भागने वाली जिंदा लाशें। ट्रेन के डब्बे में बैठे लोग आपस में बात न करके हर कोई अपने मोबाइल से बात करने में व्यस्त दिखे। बेशक आज उसका शहर अपनी परिधि बढ़ा रहा था मगर इसके निवासी खुद को और संकुचित करते जा रहे थे। व्यकिगत तरक्की के आगे सामूहिक विकास गौण हो गया था, इसके अपने ही इसकी आत्मा और चरित्र को मारकर खुद को सफलता की पराकाष्ठा पर पहुँचाने की बेशर्मी भरी जिद पाल रखे थे। इस शहर की हालत वृद्धाश्रम में पड़े लाचार बुजुर्गों सी हो गयी थी जिन्होंने खुद को मिटा कर अपनी संतान को बुलंदियों की ऊँचाई पर पहुँचा दिया और आज वो बच्चे अपनी दुनिया में मशगूल होकर इस मिट्टी तक को भूलते जा रहे हैं। आज लोग उस शहर के नाम का इस्तेमाल सिर्फ स्थायी पते के लिए प्रयोग में ला रहे हैं। गोपाल के उस शहर का मूल लुप्त होता जा रहा था, जहाँ बच्चे बचपन में ही एकता का पाठ सीख, गली के बच्चों के साथ खेलते थे, गिरते थे फिर खुद से उठते और आगे बढ़ते थे। उसका बचपन वाला शहर कहीं दूर चला गया था। आज वाले शहर में बिजली की चकाचौंध तो थी मगर लोगों के दिलों में कालिमा आ गई थी; जहाँ बड़े-बड़े पुलों ने दो सड़कों को जोड़ा, मगर धीरे-धीरे शहर की आत्मा बिखरती गई; जहाँ लोग सोशल मीडिया पर हज़ारों लोगों से जुड़े थे, मगर खुद का परिवार टूट रहा था; जहाँ लोगों ने गगनचुम्बी इमारतें तो बनाई, मगर उसी अनुपात में अपनी सोच और विचारों को नीचे ले आए। उसे अपने महाशय मलिक रामजी की बातें याद आ रही थीं और अंतरात्मा में यही चल रहा था कि आर्थिक विकास की इस अंधी दौड़ में उसका बचपन वाला “वो शहर कहीं खो गया"।

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